-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
बतौर फिल्मकार संजय लीला भंसाली की अपनी एक अलहदा पहचान है तो बतौर फिल्म-संपादक उनकी बहन बेला सहगल (जिन्होंने इस फिल्म ‘शीरीं फरहाद की तो निकल पड़ी’ के आने से ठीक पहले अपने नाम में भंसाली जोड़ लिया है) का भी काफी नाम है। यही बेला इस फिल्म की डायरेक्टर हैं और इसे देखने के बाद सबसे सुखद यही लगता है कि उनकी फिल्ममेकिंग में अपने भाई के काम का अक्स न के बराबर है। एक और तारीफ की बात यह भी है कि उन्होंने अपनी पहली फिल्म में ऐसा विषय, ऐसे किरदार और ऐसे कलाकार लिए जो टिकट-खिड़की के नज़रिए से बिकाऊ नहीं समझे जाते। यह अलग बात है कि बेला का यही दुस्साहस उन्हें बॉक्स-ऑफिस पर महंगा पड़ने वाला है।
इस फन-रोमांटिक फिल्म में एक आम किस्म की कहानी है जिसमें एक लड़का है, एक लड़की है, दोनों मिलते हैं, दोनों में प्यार हो जाता है, दोनों शादी करना चाहते हैं, मगर लड़के की मां को एतराज़ है। इस आम-सी लगने वाली कहानी में खास बात यह है कि यहां लड़का 45 बरस का है और लड़की 40 की। हालांकि लड़के की शादी न हो पाने की जो वजह बताई गई है (कि वह ब्रा-पेंटी की दुकान में सेल्समैन है), वह काफी कमज़ोर है। यूं इस फिल्म में कमज़ोर बातें बहुत सारी हैं। जैसे कि कहानी बहुत ही रूखी-सूखी है, उस पर जो स्क्रिप्ट रची गई है वह एकदम नाक की सीध में आसपास के रोचक पड़ावों की परवाह किए बिना चलती चली जाती है। कह सकते हैं कि इस पटकथा में उतार-चढ़ाव और घुमावदार रास्तों की जो गुंजाइशें थीं उन पर ध्यान नहीं दिया गया और इसी वजह से यह एक ही ट्रैक पर चलती और कभी-कभी तो घिसटती हुई-सी नज़र आती है। पारसी किरदारों की अपनी जो कॉमिक विशेषताएं होती हैं, उनका भी भरपूर फायदा उठाने से फिल्म चूक गई है। फिर, इसमें किरदार तो ढेरों हैं और निर्देशक ने चुन-चुन कर उनके लिए ज़्यादातर पारसी कलाकार भी लिए हैं, लेकिन दो-एक को छोड़ कर किसी को भी उभारा नहीं गया।
बोमन ईरानी सधे हुए कलाकार हैं और इस किस्म के किरदारों में वह नजर आते रहे हैं। तो, उनका काम बहुत ज्यादा प्रभावी न होते हुए भी अच्छा लगता है। फराह खान बतौर अभिनेत्री पहली बार इतने बड़े रोल में आई हैं और ज़्यादातर तो उन्होंने उसी अंदाज़ में संवाद बोले हैं जैसे वह असल में हैं। कहीं-कहीं वह बेहद असरदार और खूबसूरत लगीं तो कहीं-कहीं अपने किरदार को पकड़ने के लिए जूझती हुई भी नज़र आईं। डेज़ी ईरानी और शम्मी का काम भी अच्छा रहा। कुरुष देबू के किरदार को दमदार बनाया जा सकता था। फिल्म का संगीत थिरकाने और गुनगुनाने लायक नहीं है लेकिन यह फिल्म के मिज़ाज के मुताबिक रहा है। बेला भंसाली सहगल ने ऐसा विषय उठा कर हिम्मत तो दिखाई लेकिन अगर वह इसे थोड़े और असरदार ढंग से उठा पातीं तो यह फिल्म यादगार हो सकती थी।
अपनी रेटिंग-2.5 स्टार
(नोट-इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी अन्य पोर्टल पर छपा था)
Release Date-24 August, 2012
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)