-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
कई फिल्मी सितारे अपने फैन्स के लिए भगवान होते हैं। उनकी एक झलक पाने, उनके साथ एक सैल्फी खिंचवाने के लिए ये लोग कुछ भी कर गुज़रने को तैयार होते हैं। लेकिन क्या हो अगर एक सुपरस्टार अभिनेता और खुद को उसका सबसे बड़ा फैन कहने वाले शख्स के बीच तलवारें खिंच जाएं, और वह भी एक सैल्फी, एक ड्राइविंग लाइसैंस के लिए?
2019 में आई मलयालम फिल्म ‘ड्राइविंग लाइसैंस’ की यह कहानी सुनने में दिलचस्प है। यह फिल्म भी दिलचस्प थी और इसे तारीफों के साथ-साथ खासा मुनाफा भी हुआ था। और जब कहीं दूर दक्षिण में ऐसा होता है तो ‘बॉलीवुड’ वालों की आंख फड़कती है और वे भाग कर उस फिल्म को हिन्दी में बनाने के अधिकार लपक लेते हैं। लेकिन हर बार बॉल दूसरी टीम पर ही गोल करे, यह ज़रूरी नहीं। ताज़ा उदाहरण पिछले हफ्ते आई ‘शहज़ादा’ का है जो मनोरंजन के नाम पर कच्ची लस्सी थी।
सुपरस्टार विजय कुमार शूटिंग के लिए भोपाल आया हुआ है। उसे ड्राइविंग लाइसैंस की तुरंत ज़रूरत है। वहां का आर.टी.ओ. इंस्पैक्टर ओमप्रकाश विजय कुमार का भक्त है। लेकिन किसी वजह से इन दोनों के बीच तलवारें खिंच जाती है। इनकी ये तलवारें म्यानों में वापस जाने से पहले इन्हें क्या-क्या दिन दिखाती हैं, इनसे क्या-क्या करवाती हैं, यही इसकी भी कहानी है।
फिल्मी सितारों के लिए जो पागलपन, जो भक्ति, जो अंधश्रद्धा दक्षिण भारत में दिखती है, उसका सौवां हिस्सा भी हिन्दी के मैदान में नहीं दिखता। वहां के फैन्स द्वारा अपने चहेते सितारे की फिल्म आने पर उसके बुत बनवाना, उन बुतों को मालाएं पहनाना, दूध से नहलाना, ढोल-ताशे बजवाना आम है। लेकिन हिन्दी वाले ऐसी हरकते नहीं करते। इस लिहाज़ से यह कहानी ही गलत है क्योंकि हिन्दी का आम दर्शक इससे खुद को जोड़ नहीं पाता है। पर चलिए, कहानी चुनना निर्माता-निर्देशक का काम है। बात करते हैं कि उसे फिल्माया कैसे गया। अब यह बताइए कि क्या आपने देखा है कि कोई आर.टी.ओ. इंस्पैक्टर किसी सुपरस्टार का ड्राइविंग लाइसैंस बनाते समय इतना अड़ियल हो जाए कि अपने सीनियर्स की भी न सुने और उसके सीनियर उसके सामने लाचार नज़र आएं? नहीं न? इसीलिए इस फिल्म में दिखाई गईं ऐसी हरकतें दिल को भले ही अच्छी लगें, दिमाग को खलती हैं।
सुपरस्टार और उसके फैन के बीच की लड़ाई शाहरुख खान वाली ‘फैन’ में भी थी लेकिन वहां मामला बहुत गंभीर था जबकि यहां पर फिल्म का मिज़ाज हल्का-फुल्का रखा गया है। लेकिन इंटरवल तक दिलचस्प लग रही और उत्सुकता जगा रही फिल्म बाद में ऐसी फिसली है कि बॉल सामने वाले गोल में जाने की बजाय अपनी तरफ ही लौट आई है। अलबत्ता संवाद कई जगह चुटीले हैं, मज़ा देते हैं। ‘गुड न्यूज़’ (रिव्यू-मुबारक हो, ‘गुड न्यूज़’ है) और ‘जुग जुग जियो’ (व्यू-‘जुग जुग जिओ’ में है रिश्तों की खिचड़ी) जैसी फिल्में दे चुके राज मेहता ने हाथ आई स्क्रिप्ट को सही से पकड़ा। हिन्दी स्क्रिप्ट लिखने वाले ऋषभ शर्मा अपनी कल्पनाओं के घोड़े थोड़े तेज़ दौड़ाते तो वह राज मेहता के हाथ में थोड़ी और प्रभावी, थोड़ी और विश्वसनीय स्क्रिप्ट दे सकते थे।
अक्षय कुमार भरपूर सहज रहे हैं। जैसे वह असल में हैं, ठीक वैसे ही। उन्हें देखना सुहाता है। उनके फैन्स उन्हें इस फिल्म में पसंद करेंगे। इमरान हाशमी उनके सामने डट कर रहने की कोशिश में कहीं जमे तो कहीं फिसले। नुसरत भरूचा, डायना पेंटी, अदा शर्मा आदि दिखने भर को ही दिखीं। महेश ठाकुर सही रहे। पिट चुके फिल्म स्टार के किरदार में अभिमन्यु सिंह जोकरनुमा हरकतें करके भी जंचे। गजब काम तो किया पार्षद बनीं मेघना मलिक ने, जब-जब आईं हंसा गईं। एक सीन में पप्पी जी बन कर आए अक्षय के पुराने साथी नंदू यानी अजय सिंह पाल भी जंचे। (मिलिए हॉस्पिटल के सामने फू-फू करते नंदू से) गीत-संगीत मसाले की तरह ऊपर से बुरका गया लगा। पूरी फिल्म भोपाल की, लेकिन एक भी मुस्लिम किरदार नहीं। बदल रहा है ‘बॉलीवुड’। और यह फिल्मों में न्यूज़ मीडिया वालों को जोकर दिखाना इतना ज़रूरी होता है क्या?
कुछ नया, कुछ हट कर करने की बजाय हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को अगर बार-बार दक्षिण के माल को ही परोसना है और वह भी उसका दम-सत्व निकाल कर, तो वह दिन दूर नहीं जब इनकी फिल्में अपने ही पाले में सैल्फ-गोल मार-मार कर खुद ही खुद को हरा देंगी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-24 February, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
एकदम सही रिव्यु।
रिव्यु को पढ़कर ही डायरेक्टर और इस मूवी के कलाकारों के बारे में पता चल रहा है। भोपाल शहर की मूवी में मुस्लिम किरदारों का न होना निर्देशक और लेखक दोनों की कम सूझ-बूझ का उदाहरण है। साउथ का तड़का, बॉलीवुड की हर मूवी में नहीं सीगल सकता।
रिव्यु का अंत एक आत्ममंथन की ओर ले जाता है और मूवी को देखने की जिज्ञासा उत्पन्न करता है।
नकल के लिए भी अकल चाहिए! पिछले काफी समय से कभी हॉलीवुड तो कभी टॉलीबुड की कहानियां कभो रीमेक तो कभी चोरी तो कभी कभी पूरी की पूरी फिल्म ऐसे ही बिना मेहनत के परोस दी जाती है! ये सब आगे भी जारी रहेगा! पर वही न मुनाफा चाहिए तो अकल लगानी होगी और यही मात खा जाते हैं बॉलीवुड वाले!! रिव्यु पढ़ कर लगा ओरिजिनल देखनी चाहिए वैसे भी दक्षिण और उत्तर भारत के कल्चर में बहुत फर्क है! लेकिन जैसे बताया आपने अक्षय कुमार, मेघना मालिक अभिमन्यु की अदाकारी और नए विषय के लिए फिल्म देखी जा सकती है! धन्यवाद