-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
अच्छा बताइए कि आपको मुंबई से कैलाश जाना हो तो आप क्या करेंगे? अब यह मत कहिएगा कि कैलाश तो चीन में है, पासपोर्ट-वीज़ा लगेगा। आप यह बताइए कि जाएंगे कैसे? कम से कम दिल्ली तक तो हवाई जहाज पकड़ेंगे न? लेकिन नहीं हमारी हीरोइन ने मुंबई से ही कार बुक कराई है। वो भी तीन महीने पहले, ठीक उस दिन के लिए जिस दिन के बारे में उसे पता है कि मर्डर के आरोप में जेल में बंद उसका प्रेमी बाहर आ जाएगा। तीन महीने में…! सच्ची…! ऊपर से ये दोनों अपने साथ इतने छोटे बैग लेकर जा रहे हैं जिनमें चार कच्छे-बनियान भी ढंग से न आएं। इससे बड़ा बैग तो दिल्ली की लड़कियां मैट्रो ट्रेन में लेकर घूमती हैं। हां, जेल से बाहर आते समय उस उल्लू, ओह सॉरी, उस प्रेमी के हाथ में एक गिटार और एक उल्लू का पिंजरा ज़रूर है। इस लड़की को कोई मारना चाहता है। पर जब तक अपना टैक्सी-ड्राईवर संजू बाबा उसके साथ है, किस की मज़ाल, जो उसे छू भी सके।
टिपिकल भट्ट कैंप वाली फिल्म है यह। ‘अंधेरा कायम रहे’ किस्म के सैट। रोशनी से इतनी नफरत क्यों है भट्टों को? अंधेरे में डूबे ढेरों जटिल किरदार। सीधे लोग नहीं हैं क्या इनकी दुनिया में? पूरी फिल्म में हंसी तो छोड़िए, आपके चेहरे पर मुस्कान भी आ जाए तो कसम उस खुजली की जो भट्ट साहब को होती रहती है। कहानी के नाम पर फिर भी कुछ है लेकिन स्क्रिप्ट के नाम पर जो रचा गया है वह बर्बादी है-टेलेंट की, सिनेमा की।
1991 में आई ‘सड़क’ शानदार फिल्म थी-भले ही एक अमेरिकन फिल्म की कॉपी थी। वैसे भी भट्ट साहब विदेशी फिल्मों पर ‘हाथ साफ’ करने में माहिर रहे हैं और वो वक्त बहुत जल्दी चला गया था जब उन्होंने कुछ ‘ओरिजनल’ बनाया और तारीफें व कामयाबी पाई। लेकिन डिज़्नी-हॉटस्टार पर आई ‘सड़क 2’ को देख कर आज की पीढ़ी सवाल पूछ सकती है कि अगर आज के मैच्योर भट्ट साहब ऐसी वाहियात फिल्म बना रहे हैं तो 29 बरस पहले के भट्ट साहब की ‘सड़क’ तो और भी ज़्यादा घटिया रही होगी? और यह सवाल सिर्फ नई पीढ़ी ही नहीं, भारतीय सिनेमा भी पूछ सकता है कि क्या हक है भट्ट साहब को उस पर यूं अत्याचार करने का? एक सवाल और पूछा जा सकता है कि आखिर इस कहानी में ऐसा क्या देखा उन्होंने जो 21 साल का अपना संन्यास छोड़ कर वापस निर्देशक की कुर्सी पर आ बैठे? गालियां ही खानी थीं तो और भी बहुत तरीके हो सकते थे।
कहने को यह फिल्म ढोंगी बाबाओं के खिलाफ बात करती है, पैसे के लिए अपनों की दगाबाज़ी की बात करती है, किसी पराए पर विश्वास करने की बात करती है। लेकिन दिक्कत यही है कि यह सिर्फ बातें करती है, उन बातों को आप तक पहुंचाती नहीं है कि आप उन्हें महसूस करके अपने दिल में जगह दे सकें। जब पैसा फॉक्स स्टार स्टूडियो का लग रहा हो तो कोई इसकी परवाह करे भी क्यों? ऐसे में ठीक से किरदार भी क्यों गढ़े जाएं और हम भी क्यों परवाह करें कि यह फिल्म सधे हुए कलाकारों को भी जोकर बना कर रख देती है। यहां आदित्य रॉय कपूर की बात नहीं हो रही। उन्हें अभिनेता मानना अभिनय कला का अपमान है। और जब कुछ बेहद लचर, कमज़ोर, थका हुआ, बेढब हो तो अच्छा गीत-संगीत भी चुभने लगता है।
इस किस्म की फिल्म बनाना अपराध है-सिनेमा के प्रति, सिनेमा के दीवानों के प्रति। फिल्म के अंत में अपना हीरो ‘राम नाम सत्य है’ बोलते हुए खलनायकों को मारता है। दरअसल यह फिल्म भी यही काम करती है-सिनेमा की अर्थी उठाती है यह। इसे देखने से बेहतर होगा कि खुदकुशी कर ली जाए, ज़्यादा मज़ा आएगा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-28 August, 2020
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)