-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
किस्म-किस्म की फिल्मों के बाज़ार में खरीदार यानी दर्शक भी किस्म-किस्म के होते हैं। बहुतेरे लोग सीधी-सरल फिल्मों में मनोरंजन तलाशते हैं तो किसी-किसी को आड़ी-टेढ़ी फिल्मों में मज़ा आता है। यह फिल्म भी ऐसे दर्शकों के मतलब की है जिन्हें कुछ अलग ढंग से बना अलग किस्म का सिनेमा देखने का शौक है। यह फिल्म ‘आरके/आरके’ वैसे भी पिछले दो बरस में बहुत सारे फिल्म फेस्टिवल्स घूम आई है और फिल्म समारोहों में उठने-बैठने के आदी हो चुके दर्शकों के ही पल्ले पड़ेगी।
आरके एक लेखक, अभिनेता, निर्देशक है। अलग किस्म की फिल्में बनाना उसका शौक है भले ही वे फ्लॉप होती हों। अपनी नई फिल्म ‘मेरा नसीब’ में उसने महबूब आलम का रोल भी किया है। लेकिन एडिटिंग के दौरान पता चलता है कि महबूब फिल्म में है ही नहीं। वह कहीं भाग गया है, फिल्म में से निकल कर। ये लोग उसे तलाश भी लेते हैं लेकिन वह अब वापस फिल्म के अंदर की दुनिया में नहीं जाना चाहता। उसे लगता है कि वहां पर वह अपने मन मुताबिक नहीं जी रहा था बल्कि वह सब कर रहा था जो फिल्म का लेखक आरके उससे करवाना चाहता है।
1991 में दूरदर्शन पर आए एक टी.वी. सीरियल ‘फटीचर’ में फटीचर नामक किरदार एक किताब में से निकल कर भाग जाता है। उस सीरियल के हर एपिसोड में फटीचर के समाज के बाकी लोगों से मिलने और कुछ सीखने/सिखाने की कहानियां थीं। इस फिल्म का महबूब बाहर की दुनिया में अपने मुताबिक जीना चाहता है, अपनी मनमर्जी करना चाहता है लेकिन लेखक/निर्देशक आरके उसे अपने कहे पर चलाने को उतारू है। फिल्म एक तरह से रचनात्मक आज़ादी की बात भी कहती है। आज़ादी एक तरफ फिल्म लिखने/बनाने वाले की जिसमें उस पर दबाव हैं कि हीरो को मरवाओ मत, मसाले डालो ताकि पब्लिक आए। और दूसरी तरफ आज़ादी उन किरदारों की जो अपनी रौ में बहना चाहते हैं लेकिन लेखक-निर्देशक के इशारों पर चलने को बाध्य हैं। फिल्म वहां दिलचस्प मोड़ ले लेती है जब महबूब को तलाश कर आरके अपने ही घर में ले आता है जहां वह सबका चहेता हो जाता है और खुद आरके को उससे ईर्ष्या होने लगती है।
रजत कपूर जिस तरह की फिल्में (रघु रोमियो, मिथ्या, आंखों देखी, कड़क) लिखते/बनाते आए हैं उन्हें पसंद कर पाना, समझ पाना, जज़्ब कर पाना हर किस्म के दर्शक के बस का नहीं है। कह सकते हैं कि वह ‘इंटेलिजैंट सिनेमा’ के जीव हैं जो इस सिनेमा में अलग किस्म के एक्सपेरिमैंट करते हुए अपनी बात गूढ़ ढंग से कहना पसंद करते हैं। उनके सिनेमा को पसंद करने वाले दर्शक इस फिल्म से भी निराश नहीं होंगे। ‘मेरा नसीब’ के बनने की रोचक प्रक्रिया, महबूब के फिल्म से निकल भागने और वापस आने के बाद के सीक्वेंस न सिर्फ दिलचस्पी जगाते हैं बल्कि सोचने पर भी मजबूर करते हैं। एक किस्म की छुपी हुई आध्यात्मिकता भी है इस फिल्म में जो जीवन के फलसफों को बयान करती है, बेशक कि आप इसे पकड़ पाएं।
रजत कपूर, रणवीर शौरी, मनु ऋषि चड्ढा कमाल का काम करते हैं। कुबरा सैत, चंद्रचूड़ राय लुभाते हैं। एक सीन में आकर नमित दास भी असर छोड़ जाते हैं। बाकी कलाकार भी ठीक हैं। मल्लिका शेरावत पहले भी पर्दे पर अजीब लगती थीं, अब भी वैसी ही हैं। गीत-संगीत अच्छा है। रजत ने यह फिल्म बनाने के लिए क्राउड फंडिंग का सहारा लिया है। यार-दोस्तों और अनजान लोगों तक से पैसे लेकर बनी इस फिल्म पर बजट के अभाव का असर दिखता है लेकिन इससे फिल्म का रचनात्मक पक्ष कमज़ोर नहीं हुआ है। हां, फिल्म का नाम कन्फ्यूज़ करता है। ‘आरके/महबूब’ कहीं बेहतर होता।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-22 July, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
देखते हैं फिर तो भाईसाब 🙂