-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
किसी फिल्म का नाम उसके किसी किरदार के नाम पर हो तो अमूमन दो बातें होती हैं। पहली यह कि या तो उसे बनाने वालों के ज़ेहन में ही यह बात साफ नहीं है कि वे क्या कहना चाहते हैं। दूसरी यह कि उन्हें तो पता है लेकिन वे चाहते हैं कि दर्शक खुद समझे कि असल में वे क्या कहना चाहते हैं। यहां पर दूसरी वाली बात है। नितिन कक्कड़ अपनी अब तक की फिल्मों (फिल्मीस्तान, मित्रों, नोटबुक, जवानी जानेमन) से इतना तो बता ही चुके हैं कि कहानी में से मानवीय संवेदनाओं को बारीकी से पकड़ कर उन्हें पर्दे पर उकेरने का गुर उन्हें बखूबी आता है। उनकी यह फिल्म बेशक उनका अब तक का सबसे मैच्योर काम है।
जैंगो सर्कस बंद हो गया तो सर्कस से जुड़े सब लोग सड़क पर आकर जीने की जद्दो-जहद में लग गए। इन्हीं में से एक है राम सिंह जो सर्कस में चार्ली बन कर सबको हंसाता था। लेकिन यह दुनिया तो उस सर्कस से कहीं बड़ी सर्कस है बाबू, यहां करतब दिखाना आसान नहीं। मगर राम सिंह और उसके साथी उम्मीद नहीं छोड़ते।
राम सिंह को केंद्र में रख कर चल रही यह कहानी असल में इसके तमाम किरदारों के संघर्ष का एक कोलाज है। इस कोलाज में कोई रिक्शा चला रहा है, कोई सड़क पर वायलिन बजा रहा है, कोई क्लब के बाहर दरबान बना खड़ा है तो कोई कुछ और कर रहा है। ये लोग रोटी तो कमा रहे हैं लेकिन इनके अंदर का कलाकार भूखा है। नितिन कक्कड़ और शारिब हाशमी ने इस कहानी को भरपूर परिपक्वता के साथ लिखा है। हालात को त्रासदी में तब्दील किए बिना, पर्दे पर नकारात्मकता और निराशा लाए बिना जिस तरह से उन्होंने हर किरदार को छुआ है, वह अद्भुत है। राम सिंह में ‘मेरा नाम जोकर’ का राजू भी दिखता है और ‘दो बीघा ज़मीन’ का शंभू महतो भी। यह कहानी इन किरदारों के जुझारूपन के साथ-साथ इनकी जीवटता भी दिखाती है और बताती है कि सर्कस हो या ज़िंदगी, शो हमेशा चलता रहता है, चलते रहना चाहिए।
सोनी लिव पर रिलीज़ हुई इस फिल्म के किरदार इसे दर्शनीय बनाते हैं तो इन किरदारों को निभाने वाले कलाकारों ने इसमें जान फूंकी है। चार्ली बने कुमुद मिश्रा ने अपने अभिनय का चरम छुआ है इस फिल्म में। वह सीन अद्भुत है जहां वह चुप खड़े अपने चेहरे पर सफेद रंग पोत रहे हैं। कोई शब्द नहीं, सिर्फ भावों से वह राम सिंह से चार्ली में तब्दील होते चले जाते हैं। एक और अद्भुत सीन वह है जहां होटल में सफाई कर रहे अपने एक साथी से राम सिंह मिलता है।
फिल्म हर छोटे-बड़े कलाकार को कम से कम एक सीन ज़रूर देती है जिसमें वह कलाकार अपनी प्रतिभा को जम कर दिखाता है। लिलिपुट, के.के. गोस्वामी, शारिब हाशमी, सुरेंद्र राजन, सलीमा रज़ा, फार्रुख सेयेर, रोहित रोखाड़े, आकर्ष खुराना, अविनाश गौतम, पूर्णानंद वांडेकर… हर किसी ने सचमुच जानदार काम किया है। दिव्या दत्ता के ज़िक्र के बगैर बात अधूरी रहेगी। पहले तो लगता है कि वह इस किरदार के लिहाज़ से कुछ ज़्यादा ही ‘शहरी’ हैं। लेकिन धीरे-धीरे वह अपने अभिनय से दिल में गहरी जगह बनाती चली जाती हैं। फिल्म के गीत, संगीत, कैमरा, लोकेशन इसे मजबूत बनाते हैं।
कहीं-कहीं हल्की-सी नीरस होती, कहीं-कहीं डॉक्यूमैंट्री जैसी बन जाती यह फिल्म अंत में थोड़ी गड़बड़ा गई। इसे बेहतर, सशक्त क्लाइमैक्स मिलना चाहिए था। लेकिन इस किस्म की फिल्मों का आना ज़रूरी है। ये सिनेमा के उस शून्य को भरने का काम करती हैं जो मसाला फिल्मों से निकली कड़वी हवाओं से बनता है। ये फिल्में उम्मीदों को मरने नहीं देतीं। पैसा कमाना ही इनका मकसद नहीं होता। इन्हें देखिए, सराहिए, इन्हें बनाने वालों को हिम्मत मिलेगी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-28 August, 2020
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)