-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एक गांव के तीन मर्दों की सीधी चल रही जिंदगी की गाड़ी उस समय बेपटरी हो जाती है जब स्वास्थ्य विभाग के नसबंदी वाले पोस्टर पर उनकी फोटो छप जाती है जबकि उन्होंने नसबंदी करवाई भी नहीं होती। इस सच्ची घटना पर श्रेयस तलपड़े बतौर निर्माता तीन साल पहले मराठी में ‘पोश्टर बोईज़’ लेकर आए थे। यह फिल्म उसी का हिन्दी रीमेक है जिससे श्रेयस ने बतौर निर्देशक अपनी नई पारी शुरू की है।
कहानी को हरियाणा जैसे लगने वाले किसी काल्पनिक गांव में स्थित किया गया है। नसबंदी वाले पोस्टर पर फोटो छपने के बाद इनकी निजी और सामाजिक जिंदगी पर पड़ने वाले असर और स्वास्थ्य विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों व सिस्टम से इनकी भिड़ंत को कॉमिक तरीके से दिखाने की कोशिश की गई है। सोशल मीडिया पर दिखने वाले प्रचलित चुटकुलों के अलावा सनी देओल की फिल्मों के प्रसंगों और संवादों के साथ हल्का-फुल्का हास्य परोसने की श्रेयस और उनकी टीम की कोशिश सफल नजर आती है। लेखकों ने बिना गंभीर हुए कुछ गहरी बातें कही हैं और साथ ही बिना अश्लील हुए नसबंदी जैसे विषय के इर्दगिर्द हंसने-हंसाने वाली स्क्रिप्ट खड़ी की है। बतौर निर्देशक श्रेयस के काम में महानता भले न हो, परिपक्वता दिखती है। एक छोटी-सी घटना पर बिना बोर किए और बिना पटरी से उतरे फिल्म को दो घंटे तक साधे रखना आसान नहीं होता। फिल्म के अंत में आने वाला ट्विस्ट सुहाता है।
श्रेयस, सनी और बॉबी देओल के किरदार दिलचस्प लगते हैं और इन तीनों की इन्हें निभाने में की गई मेहनत साफ दिखती है। ‘हाय हाय नी कुड़ियां शहर दियां…’ का नया वर्जन सुनने से ज्यादा ‘देखने लायक’ है। हंसाते-हंसाते यह फिल्म कई गंभीर मुद्दों पर सार्थक बातें भी कर जाती है।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
Release Date-08 September, 2017
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)