-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘‘जो बच्चा अपने बाप के खून के छींटों वाली कमीज़ रोज़ पहनता हो और जिसकी मां को उसी के सामने उसी के देश की फौज उठा कर ले जाता हो, वो बच्चा, बच्चा कहां रह जाता है साहब…?’’
1971 के साल में पूर्वी पाकिस्तान की आज़ादी के लिए लड़ रही ‘मुक्तिवाहिनी’ का एक सदस्य बच्चों के हाथ में बंदूक थमाने का कारण बताते हुए जब यह कहता है तो मन इतिहास के उन काले, अंधेरे पन्नों में झांकने लगता है जब पाकिस्तान की सरकार और फौज ने अपने ही देश के एक हिस्से में उठ रही आवाज़ों को कुचलने के लिए अमानवीय दरिंदगी की थी। इतिहास गवाह है कि पूर्वी पाकिस्तान के आज़ाद होकर बांग्लादेश बनने के उस संघर्ष को दबाने के लिए वहां के करीब 30 लाख लोगों को मार दिया गया था और करीब 3 लाख औरतों के साथ बलात्कार हुआ था। मुक्तिवाहिनी के उस संघर्ष में भारत की महती भूमिका थी और पूर्वी मोर्चे पर पाकिस्तान को हराने में वहां के गरीब पुर में हुई निर्णायक लड़ाई की भी। उस लड़ाई में भारत ने एक ऐसे टैंक का इस्तेमाल किया था जो ज़मीन पर चलने के साथ-साथ पानी में भी तैर सकता था और इसीलिए पंजाब रेजिमेंट के जवानों ने उसे प्यार से ‘पिप्पा’ नाम दिया। ‘पिप्पा’ यानी घी का वह कनस्तर जो पानी में आराम से तैर सकता है। वैसे हम पंजाबी लोग ‘पिप्पा’ नहीं ‘पीपा’ बोलते हैं। खैर…!
गरीब पुर की लड़ाई के हीरो थे कैप्टन बलराम सिंह मेहता। उस लड़ाई में उन्होंने और उनकी 45 कैवेलरी ने अपने ‘पिप्पा’ यानी पीटी-76 टैंकों से पाकिस्तान के टैंकों की लंका लगा दी थी। उन्हीं बलराम सिंह की लिखी किताब पर लेखक-निर्देशक राजा कृष्णा मैनन ने अपनी इस फिल्म में बलराम सिंह, उनके परिवार, उनकी यूनिट और पूर्वी पाकिस्तान के हालात के साथ-साथ ‘पिप्पा’ की भूमिका को चित्रित किया है।
एक युद्ध-फिल्म में जो कुछ हो सकता है, वह सब इस फिल्म में है। कुछ हीरो हैं, उनकी बैक-स्टोरी है, मैदान में उनका जीवट है, कुछ पीड़ित हैं, उनका दर्द है, कुछ अगल-बगल के ट्रैक भी हैं लेकिन इन सबके बावजूद यह फिल्म उस तरह से दिल नहीं छू पाती, उस तरह से दिमाग पर असर नहीं कर पाती, उस तरह से ज़ेहन में नहीं उतर पाती कि इसे देख कर मन विचलित हो उठे, आंखें नम हो उठें, मुट्ठियां भिंचने लगें या भुजाएं फड़कने लगें। और अगर किसी वॉर-फिल्म को देख कर यह सब न हो तो समझिए, चूक उसे लिखने-बनाने वालों से ही हुई है।
‘पिप्पा’ बुरी नहीं बनी है। शुरू से ही यह अपने मुख्य किरदारों की सोच को स्पष्ट कर देती है। बलराम के बागी तेवर दिखा कर यह स्थापित करती है कि यह बंदा कल को मैदान में क्या रुख अपनाएगा। लेकिन अपने बड़े भाई और 1965 की लड़ाई के हीरो मेजर राम से बलराम का खुंदक रखना अजीब लगता है, भले ही ऐसा सच में भी हुआ हो। बलराम की बहन की शादी वाला ट्रैक भी मिसफिट दिखा। पूर्वी पाकिस्तान के हालात दिखाते दृश्य कोई करुणा, घृणा या जुगुप्सा नहीं उपजा पाते। सिर्फ नैरेशन या बैकग्राउंड म्यूज़िक से ही तो सीन नहीं बना करते न। पूरी फिल्म में दृश्यों के बीच का तालमेल बार-बार टूटता दिखा है और ऐसा लगता है कि एक सशक्त विषय कुछ कमज़ोर कलमों, कुछ औसत हाथों में पड़ कर ज़ाया हुआ जा रहा है।
‘पिप्पा’ को देख कर यह भी लगता है कि इसे बड़े पर्दे के लिए बनाया गया होगा लेकिन बिकाऊ चेहरों की कमी और रूखे ट्रीटमैंट के चलते इसे अमेज़न प्राइम पर धकेल दिया गया। विडंबना देखिए कि उस समय के हमारे सेनाध्यक्ष सैम मॉनेकशा को फिल्म में कुछ एक बार दिखाने के बावजूद यह फिल्म उनका नाम तक नहीं बताती। लगता है यह ज़िम्मेदारी इस फिल्म ने जल्द आ रही फिल्म ‘सैम बहादुर’ पर छोड़ दी है। हालांकि सैम के किरदार में कमल सदाना जंचे हैं। बलराम बने ईशान खट्टर ने अपने किरदार में ज़ोर लगाया लेकिन उनके चेहरे की मासूमियत आड़े आती रही। प्रियांशु पैन्यूली, मृणाल ठाकुर, सोहम मजूमदार, चंद्रचूड़ राय, सूर्यांश पटेल, विशाल रुंगटा, सोनी राज़दान, अमित घोष, अनुज सिंह दुहान आदि ने अच्छा काम किया, इनामउल हक ने शानदार, लेकिन इन सभी के किरदार कहीं न कहीं आधे-अधूरे से लगे, लगा कि कुछ और दम, कुछ और गहराई होती तो मामला और जमता।
‘परवाना…’ वाले गाने को छोड़ कर बाकी का गीत-संगीत औसत ही रहा। इस फिल्म का नाम भी बहुसंख्य दर्शकों के बीच इसकी पहुंच को सीमित करता है। सच यह भी है कि यह फिल्म पूरी तरह से ‘पिप्पा’ की कहानी नहीं है, न ही बलराम की, न ही बांग्लादेश के जन्म की। यह फिल्म उस आधे भरे कनस्तर की तरह है जो न ढंग से तैर पा रहा है, न ही डूब पा रहा है। इसका यही अधूरापन ही इसकी तरावट को कम करता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-10 November, 2023 on Amazon Prime
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
रिव्यु पढ़कर ही पूरी फ़िल्म देख ली… शायद अब देखने की ज़रूरत भी ना महसूस हो… यदि फ़िल्म की कहानी में दम है तो वो किसी भी प्लेटफार्म पर चल सकतीहै और अच्छा बिजनेस भी कर सकती है…. लेकिन ये क्या साहिब…. जब दम ही ना हो तो क्या पड़ा पर्दा और क्या छोटा….ये तो सुना था कि दो पांवों की नाव पर ये क्या ये तो तीन पांवो की नाव निकली….
सभी ज़िम्मेदारी कलाकारों की नहीं होती बल्कि लेखक, निर्देशक और निर्माता की भी होती है…. कलाकार तो बेचारे एक्टिंग करते हैँ… जैसा लिखा हुआ दिया जाता है उस पर…. वरना बाकी तो सब फ़िल्म की अंदरूनी टीम ही करती है….
खैर… रिव्यु पढ़कर समय और पैसे की बर्बादी बच गई….