-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
बनारस में लोग मरते नहीं हैं, मुक्ति पाते हैं। ऐसा विश्वास लेकर बहुत सारे लोग अपने जीवन की संध्या में इस शहर में जाकर बस जाते हैं। इनमें से किसी को कुछ दिन में ही मुक्ति मिल जाती है तो किसी-किसी को बरसों लग जाते हैं। ऐसे ही एक दिन दयाचंद कुमार को लगता है कि उनका आखिरी समय आ गया है और उन्हें बनारस चले जाना चाहिए। परिवार राजी नहीं है मगर मजबूरन उनके बेटे राजीव को उनके साथ जाना पड़ता है। बनारस में ये दोनों मुक्ति-भवन नाम के एक लॉज में ठहरते हैं जहां ऐसे और भी कई लोग ठहरे हुए हैं। राजीव नौकरी से छुट्टी लेकर गया है और एक जवान बेटी का बाप होने के बावजूद पिता के सामने दब्बू है। बनारस में पिता-पुत्र के बीच बातें होती हैं और वे दोनों खुलने लगते हैं। हम देखते हैं इन दोनों के संबंधों की गांठें सामने आती हैं और धीरे-धीरे खुलती भी हैं। उधर राजीव और उसकी बेटी के रिश्ते में भी बदलाव आने लगता है।
मृत्यु जैसे विषय पर हम लोग गंभीरता से बात करने से कतराते हैं। ऐसे विषय पर फिल्म बनाना और इस सहजता से बनाना सचमुच सराहनीय है। मुक्ति-भवन के मैनेजर का हर नए आने वाले से ‘मृत्यु एक प्रक्रिया है, क्या आप इस प्रक्रिया को शुरू करने के लिए तैयार हैं?’ पूछना बताता है कि इंसान को खुद को इस आखिरी पड़ाव की यात्रा के लिए खुद ही तैयार होना होता है। वहां रह रहे लोगों में दया की विमला जी से निकटता होती है जो 18 साल से मुक्ति की प्रतीक्षा कर रही हैं। मृत्यु के इंतजार में बैठे लोग यहां योग करते हैं। अपना पसंदीदा टी.वी. सीरियल देखते हैं। खाने में अचार लेते हैं। यह देख हैरानी हो सकती है मगर फिल्म शायद यही तो बताना चाहती है कि यह जरूरी नहीं कि मृत्यु के लिए तैयार शख्स हर चीज से विरक्त ही हो जाए।
शुभाशीष भुटियानी की कहानी अच्छी है लेकिन इस फिल्म के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि यह नीरस अंदाज़ में बनाई गई है। महज एक घंटा 40 मिनट की होने के बावजूद अपनी सुस्त रफ्तार के चलते यह बहुत ज्यादा लंबी लगती है और बोर करने लगती है। हालांकि ललित बहल, नवनिंद्रा बहल, आदिल हुसैन और तमाम दूसरे कलाकारों के बेहतरीन अभिनय और बनारस की लोकेशंस इसे विश्वसनीय बनाते हैं लेकिन बतौर निर्देशक शुभाषीश ने इसे बिना किसी ज्यादा उतार-चढ़ाव के सपाट लहजे में परोसा है जिससे बहुत ही सीमित दर्शक इस फिल्म से खुद को जोड़ पाएंगे। हां, शुभाषीश की यह खूबी रही कि उन्होंने मृत्यु जैसे विषय पर भी उदासी भरी फिल्म नहीं बनाई। लेकिन काश, कि वह इसमें और अधिक रोचकता ला पाए होते।
अपनी रेटिंग-तीन स्टार
Release Date-07 April, 2017
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)