-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
पहले तो ‘कांतारा’ का अर्थ जान लीजिए। इसका मतलब होता है ‘रहस्यमयी जंगल’। नाम के मुताबिक ही कहानी है इस फिल्म की। कर्नाटक के किसी जंगली, आदिवासी इलाके में 1847 में किसी राजा ने अपनी सुख-शांति के बदले आदिवासियों के देवता के कहने पर वहां के लोगों को बहुत सारी ज़मीन दी थी। 1970 में उस राजा के एक वंशज ने ज़मीन वापस मांगी लेकिन पा न सका। अब 1990 चल रहा है। राजा के वंशज अब वहां के मूल निवासियों के साथ मिल कर रहते हैं। लेकिन मुख्य कहानी यह नहीं बल्कि यह है कि जंगल विभाग का नया अफसर गांव वालों को जंगल से बाहर करना चाहता है जबकि लोगों का मानना है कि जंगल पर पहला हक तो उन्हीं का है-चाहे ज़मीन हो, लकड़ी या पौधे-पत्ते।
कन्नड़ में रिलीज़ होने के महज़ दो हफ्ते में लोगों की डिमांड पर हिन्दी में डब होकर आने की किसी फिल्म की यह पहली मिसाल है। ज़ाहिर है कि इसमें दम है इसीलिए लोग इसकी तरफ खिंचे चले आ रहे हैं। इसका दम इसकी कहानी में साफ दिखता है। जिस तरह से इसमें लोक-कथा के साथ वर्ग-संघर्ष को बुना गया है, जिस तरह से आधुनिकता के साथ मिथ को घोला गया है, जिस तरह से इतिहास को वर्तमान से जोड़ा गया है, वह अद्भुत है और लेखक ऋषभ शैट्टी की कल्पनाशीलता के उत्कर्ष को दिखाता है। बतौर निर्देशक भी ऋषभ कमाल करते हैं। पहले ही सीन से वह कहानी को समझा देते हैं और उसके बाद परत-दर-परत उसे खोलते हुए भी ज़रूरी रहस्य बनाए रखते हैं। कहानी के घुमावदार मोड़ इसे दिलचस्प बनाते हैं। हालांकि पटकथा में कहीं-कहीं लटकाव है। बेवजह के कुछ दृश्यों को कसा जा सकता था। क्लाइमैक्स से थोड़ा पहले यह कुछ देर के लिए झूलने लगती है लेकिन अंत में पटरी पर आकर सीक्वेल की संभावना के साथ खत्म होती है।
फिल्म मूल निवासियों के जंगल पर अधिकार के शाश्वत संघर्ष को दिखाती है, अमीर-गरीब और ऊंची-नीची जाति के भेदभाव को दिखाती है व बताती है कि किस तरह से कुछ अमीर व ऊंचे लोग व्यवस्था का सहारा लेकर गरीब व नीचे लोगों को दबाते आए हैं। चलते-चलते फिल्म यह भी सुझा जाती है कि सरकार को लोगों के सामने नहीं बल्कि उनकी तरफ होना चाहिए। हिन्दी डबिंग अच्छी है व दो-एक जगह को छोड़ अखरती नहीं है। बीच-बीच में दर्शकों को गुदगुदाने का इंतज़ाम भी बखूबी किया गया है।
ऋषभ शैट्टी ने बतौर अभिनेता भी जम कर काम किया है। सच कहूं तो पुरस्कार के काबिल। हालांकि शिवा का उनका किरदार ‘पुष्पा’ के नायक सरीखा बहादुर, बेतरतीब और मस्तमौला है लेकिन उसके भीतर पुष्पा जैसी बेवजह की अकड़ नहीं है। वन अधिकारी बने किशोर, नायिका लीला बनी सप्तमी गौड़ा समेत अन्य कलाकार भी खूब बढ़िया रहे क्योंकि इनके किरदारों को अच्छे से गढ़ा गया। गीत-संगीत औसत है लेकिन बैकग्राउंड म्यूज़िक उम्दा है। हालांकि फिल्म में शोर बहुत है लेकिन कुछ समय बाद वह जज़्ब होने लगता है। सबसे शानदार तो फिल्म की प्रोडक्शन डिज़ाइनिंग, लोकेशन, सैट और फोटोग्राफी है जो दर्शक को इस रहस्यमयी जंगल से बाहर नहीं आने देती।
बेहतरीन कहानी को बेहतरीन अंदाज़ में कहने के लिए इस फिल्म को देखा जाना चाहिए, याद रखा जाना चाहिए।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-14 October, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
बेहतरीन समीक्षा
धन्यवाद
शुक्रिया