-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
पहले तो हिन्दी वाले दर्शक यह जान लें कि इस फिल्म की कहानी मुंबई शहर में बेस्ड है और मराठी में नींबू को लिंबू बोला जाता है। तो ‘कच्चा लिंबू’ यानी कच्चा नींबू यानी जो अभी पूरी तरह से पका न हो। किसी काम में अनाड़ी शख्स के लिए अक्सर यह विशेषण उपयोग में लाया जाता है। जानकारी खत्म।
मुंबई की एक सोसायटी में रहने वाले नाथ परिवार का बेटा क्रिकेट खेलना चाहता है लेकिन पिता चाहते हैं कि वह नौकरी करे। बेटी भी अपने माता-पिता के दबाव में भरतनाट्यम सीख रही है, डॉक्टरी की तैयारी कर रही है जबकि उसका इन दोनों में ही मन नहीं है। भाई के उकसावे पर वह सोसायटी के टूर्नामैंट में अपनी टीम बना लेती है जिसमें सब कच्चे लिंबू हैं-यानी अधपके खिलाड़ी। ज़ाहिर है कि फिल्मों में कच्चे लोग ही पक्के काम कर दिखाते हैं।
किसी मुश्किल काम को अंजाम देने के लिए जुटे अनाड़ियों के जुटने, जूझने और जीतने की कहानियां हिन्दी फिल्मों के लिए नई नहीं हैं। पृष्ठभूमि में चाहे ‘नया दौर’ का तांगा चलाना हो या ‘लगान’ की क्रिकेट टीम, ऐसी फिल्में दर्शकों को उत्तेजित और भावुक कर के दिल जीत ले जाती हैं। लेकिन यहां ऐसा नहीं हो पाया है। इसके भी कारण हैं।
इस फिल्म के खिलाड़ी ‘अंडर आर्म क्रिकेट’ की टीम बना रहे हैं जो क्रिकेट प्रेमियों के बीच कुछ खास लोकप्रिय नहीं है। इस टीम और इनके टूर्नामैंट का कैनवास छोटा है, आकर्षित नहीं कर पाता। फिर इस टीम के बनने के पीछे जो कारण बताए गए हैं, वे न तो दर्शक को उत्साहित करते हैं, न ही भावुक। बहन चाहती है कि उसका भाई जीते, आगे बढ़े लेकिन वह यहां अपने भाई को हराने के लिए टीम बना रही है। यह सही है कि अनाड़ियों को एकजुट होकर जूझते हुए देखना दर्शकों को सुहाता है लेकिन कहानी का आधार ही पुख्ता न हो तो वह सुहानापन लुभावना नहीं रह जाता। फिर कहानी को जिस तरह से पहले यहां-वहां घुमा कर भटकाया गया और बाद में एक ही पटरी पर रूखे ढंग से चलने के लिए छोड़ दिया गया, उसके चलते इसमें से न तो मनोरंजन उपज सका और न ही कोई ज़बर्दस्त वाला जोश। निर्देशक शुभम योगी को समझना होगा कि नींबू कच्चे हों तो चलेगा, रसीले ज़रूर होने चाहिएं। और हां लेखक महोदय, किसी लड़की के अपने बाप की बोतल से शराब चुरा कर पीने के बाद ‘चलता है, सब करते हैं’ वाला डायलॉग नहीं लिखा जाता।
राधिका मदान गजब काम करती हैं। अटक-अटक कर बोलते समय तो वह ‘अपनी-सी’ लगने लगती हैं। रजत बरमेचा और आयुष मेहरा भी अच्छे रहे। काम तो खैर सभी कलाकारों को बढ़िया रहा। किरदारों को खड़ा करने में थोड़ा और दम लगाया जाना चाहिए था। गाने-वाने साधारण रहे। असल में पूरी फिल्म ही साधारण है। जियो सिनेमा पर यह फिल्म मुफ्त में यहां क्लिक कर के देखी जा सकती है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-19 May, 2023 on Jio Cinema
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Wonderful reviews. It seems a worth watch now
Thanks
रिव्यु पढ़कर ही मालूम हो गया है कि ये फ़िल्म, जोकि मुफ्त में Jio Cinema पर दिखाई जा रही है, वाकई कच्चा लिम्बू ही साबित हुई है और होगी भी.. मुफ्त में दिखाने का मतलब ये नहीं होता कि निर्देशक कुछ भी बनाये और दर्शकों पर थोप दे….
‘नया दौर ‘ में दिलीप साहब (हीरो ) और ‘जीवन साहब (विलन ) कि कहानी, अगर जिस किसी ने भी देखी है, कभी नहीं भूल सकता और इसी तरह से आज के जमाने की ‘लगान’ है जिसने फ़िल्मी प्रेमियों के लिए एक अमिट छाप छोडी हुई है…
धन्यवाद
गर्मी की छुटियो मे ऐसी movies time पास नही मूड खराब कर देती हैं director ji छुटियों मे कुछ अच्छा और नया परोसा करो