-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
मुंबई का एक पुलिस वाला अपने साथी पुलिस वाले को तलाशते हुए पश्चिम बंगाल के पहाड़ी शहर कलिम्पोंग पहुंचता है। यहां वह एक ऐसी मां-बेटी के संपर्क में आता है जिनका उस खोए हुए पुलिस वाले से नाता है। यहीं उसे गणित का एक टीचर भी मिलता है। कहां खोया है वह पुलिस वाला? खोया है या मर गया? मर गया तो किसने मारा? क्यों मारा? पकड़ा जाएगा मारने वाला या बच जाएगा?
निर्देशक सुजॉय घोष को थ्रिलर कहानियां कहने में मज़ा आता है। यह अलग बात है कि अक्सर वह इस मज़े को विदेशी कहानियों और फिल्मों से लाकर हमें परोसते हैं। उनकी यह फिल्म एक जापानी उपन्यास पर आधारित है। शायद इसीलिए कलिम्पोंग की लोकेशन इसे अधिक प्रभावी बना पाती है। फिल्म शुरू होते ही तनाव का एक जाला बुनने लगती है और बिना ज़्यादा कोशिश किए वह जाला आपको जकड़ने लगता है। इस किस्म की फिल्मों में जिस तरह का दिमागी शतरंजी खेल होना चाहिए, वह इसमें एकदम शुरुआत से ही चलने लगता है। सच तो यह है कि यह एक ऐसी फिल्म है जो दिमागी कसरत करने वालों के लिए ही बनी है। मैथ्स के फॉर्मूलों का ज़िक्र जहां इसे पेचीदा बनाता है वहीं रोचकता भी देता है।
नेटफ्लिक्स पर आई यह फिल्म सीधी नहीं है बल्कि टेढ़ी चालें चलती है। यह एक मर्डर मिस्ट्री या थ्रिलर से अधिक एक मनोवैज्ञानिक कहानी दिखाती है जो हमें इसके किरदारों की ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं से परिचित कराती है। राज वसंत के लिखे संवाद इस फिल्म को ताकत देते हैं और लोकेशन, कैमरे, बैकग्राउंड म्यूज़िक व डार्कनेस को समेटती इसकी सिनेमैटोग्राफी इसे असरदार बनाती है। लेकिन इस फिल्म की स्क्रिप्ट में कुछ एक झोल भी हैं। उनका ज़िक्र यहां कर दूं तो स्पॉयलर हो जाएगा लेकिन इसे देखने के बाद आप भी कुछ सवाल पूछेंगे और सच यह है कि यह फिल्म उन सवालों के जवाब नहीं दे पाती है।
इस फिल्म को इसके कलाकारों के अभिनय के लिए भी देखा जाना चाहिए। करीना कपूर असरदार ढंग से अपने किरदार को आगे ले जाती हैं। हालांकि उनके पास करने को इससे कहीं अधिक था। विजय वर्मा हमेशा की तरह अपने किरदार को रोचक बनाते हैं। हाल ही में आई ‘हड्डी’ के बाद सौरभ सचदेवा अजित के किरदार में प्रभावी रहे। तारा बनीं नायशा खन्ना, प्रेमा बनीं लिन लेशराम, सुंदर बने करमा तकापा जंचे। लेकिन सबसे ऊपर रहे जयदीप अहलावत। अपनी लुक के साथ-साथ अपने हर एक भाव, हर एक भंगिमा से वह दिल-दिमाग में गहरे तक उतर जाते हैं। उन्हें देख कर यह भी लगता है कि वह अभी और कितना चौंकाएंगे।
यह फिल्म देखते समय जितना आनंद देती है, उतना मज़ा इसके खत्म होने पर नहीं आता। सुजॉय घोष इसके अंत को थोड़ा और सरल बनाते, इसके किरदारों को थोड़ा और विस्तार दे पाते तो यह कमाल हो सकती थी। अभी तो मुमकिन है कि आपको इसका नाम भी इस पर फिट न लगे।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-21 September, 2023 on Netflix
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
रिव्यु पूरी फ़िल्म का सार है और वाकई निष्पक्षता पूर्ण है.. रिव्यु में अभिनय के बारे में भी सही आंकलन किया गया है… नेटफ्लिक्स की बजाय पर्दे पर हो तो उसका मज़ा ही अलग होता है..