-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
मुंबई 17, बोले तो धारावी का इलाका। झोंपड़पट्टी, कचरापट्टी, गुज़रने को तंग गलियां, रहने को तंग खोलियां, तंग सोच, तंग दिल। लेकिन यहां रहने वाले मुराद को उठना है, उड़ना है क्योंकि उसे लगता है कि अपना टाइम आएगा। रैप लिखते-लिखते वह गाने भी लगता है। हालांकि उसके मामा का मानना है कि नौकर का बेटा नौकर ईच बनेगा, यही फितरत है। मामी कहती है कि गाना ही है तो ग़ज़ल गा लो। उसका ड्राईवर बाप भी कहता है कि सपने वो देखो जो तुम्हारी असलियत से मैच करते हों। पर मुराद का कहना है कि वह अपनी असलियत बदलेगा ताकि वो उसके सपनों से मैच कर सके।
समाज के निचले, वंचित, गरीब, हाशिये पर बैठे लोगों के ऊंचे सपने देखने और उन्हें अपने जुनून से सच कर दिखाने की कहानियां हमारे चारों तरफ छितरी पड़ी हैं। ऐसी कहानियों पर कायदे की फिल्में बन कर आएं तो वे न सिर्फ पसंद की जाती हैं बल्कि अपने लिए एक यादगार मकाम भी बना जाती हैं। हाल के समय में ऐसी फिल्मों की जो भीड़ आई है, यह फिल्म उनसे इसलिए अलग है क्योंकि यह हमें एक ऐसे माहौल में ले जाती है जिससे हममें से ज़्यादातर लोग नावाकिफ होंगे। क्योंकि यह हमें एक ऐसे सपने को सच होते हुए दिखाती है जो हममें से ज़्यादातर लोग देख भी नहीं पाते। क्योंकि यह उस सपने और उसके सच होने के सफर को किसी ‘फिल्मी’ अंदाज़ में नहीं बल्कि एक ऐसे ज़मीनी अहसास के साथ दिखाती है जो हमें अपना-सा लगता है।
मुंबई के दो नौजवानों डिवाइन और नेज़ी ने रैप-गायिकी की दुनिया में जिस तरह से अपनी पहचान बनाई, यह फिल्म उसी कहानी को थोड़ा बदल कर दिखाती है। नेज़ी यानी नावेद शेख पर बनी डाक्यूमेंट्री ‘बॉम्बे 70’ देखने के बाद आए विचार को रीमा कागती और ज़ोया अख्तर की कलम ने जिस किस्म की कहानी में तब्दील किया है, वह जानदार है। इस कहानी को इन्होंने जिस तरह के रंग-बिरंगे स्क्रीनप्ले में फैलाया है, वह शानदार है। अपने ड्राईवर बाप के सामने ज़ुबान तक न खोल सकने वाला मुराद, चोरी-चकारी करने वाले उसके फुकरे दोस्त, डॉक्टरी पढ़ रही उसकी गर्ल-फ्रैंड के अलावा इस माहौल में ढेरों ऐसे किरदार हैं जो फिल्मी कत्तई नहीं हैं। ये हमारे इर्द-गिर्द रोज़ाना मौजूद होते हैं लेकिन इन्हें कैसे पर्दे पर लाकर सिनेमा का हिस्सा बनाया जाना है, यह रीमा और ज़ोया की जोड़ी हमें बखूबी बताती-दिखाती है। इन किरदारों के ज़रिए ये एक विश्वसनीय माहौल रचती हैं और उस माहौल में ढेरों ऐसी बातें हमारे सामने रखती हैं, जो होती तो हैं लेकिन जिन पर बात नहीं होती है।
ज़ोया अख्तर बार-बार हमारे इस यकीन को मज़बूत करती हैं कि वह निर्देशकों की मौजूदा पीढ़ी के चंद बेहद सधे हुए नामों में से एक हैं। सैट, लोकेशन, कैमरा, बैकग्राउंड म्यूज़िक, कॉस्टयूम के अलावा फिल्म की ब्राउन टोन इसे और ज़्यादा ब्यूटीफुल ही बनाती है। रणवीर सिंह अपनी सधी हुई अदाकारी से दिल में गहरी जगह बनाते हैं। आलिया भट्ट उम्दा रहीं। हालांकि इस रोल में उनके करने के लिए कुछ खास नहीं था। उनसे टपोरी ज़ुबान भी कम बुलवाई जानी चाहिए थी। कल्कि क्वेचलिन, अमृता सुभाष, विजय राज़, शीबा चड्ढा, विजय मौर्य, विजय वर्मा जैसे तमाम कलाकारों का काम बढ़िया रहा। एम.सी. शेर के किरदार में सिद्धांत चतुर्वेदी का शानदार आगाज़ हुआ है। अपनी पहली ही फिल्म से वह दिल जीतते हैं।
इस फिल्म के गीत-संगीत पर अलग से बात होनी चाहिए। हाल के समय में किसी भी फिल्म में आया सबसे क्रांतिकारी म्यूज़िक है इसमें। कोई हैरानी नहीं होगी अगर जल्द ही अपने यहां रैप-कल्चर पहले से बढ़ा हुआ दिखने लगे तो। फिल्म की लंबाई कहीं-कहीं अखरती है। सैकिंड हाफ में रणवीर-आलिया के कुछ सीन गैरज़रूरी लगे। यह फिल्म अपने नएपन, अपने ज़मीनी अहसास और अपनी राख से उठ कर उड़ने की कोशिश करते नायक की कहानी के लिए देखी जानी चाहिए। सच तो यह है कि इस फिल्म में इतना कुछ है कि इसे एक बार देखने से जी नहीं भरता है।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
Release Date-14 February, 2019
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)