-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘डंकी’ समझते हैं आप? डंकी यानी गधा। जो कहीं जाता है तो सीधे-सीधे न जाकर इधर-उधर घूमते हुए जाता है। यही काम गरीब देशों के वे लोग भी करते हैं जो अमीर देशों में रोटी कमाने के लिए जाना चाहते हैं लेकिन कानूनन वीज़ा न मिलने के कारण एजेंटों के ज़रिए गैरकानूनी तरीके से मुल्क-दर-मुल्क भटकते हुए, तकलीफें झेलते हुए वहां पहुंचते हैं। इसे ही ‘डंकी रूट’ अपनाना या आम भाषा में ‘डंकी मारना’ कहा जाता है। राजकुमार हिरानी की यह फिल्म इसी विषय पर है।
फिल्म अपनी शुरुआत में बताती है कि लंदन में बसे तीन भारतीय वापस आना चाहते हैं। 25 साल पहले ये तीनों अपने साथी हार्डी के साथ ‘डंकी’ मार कर लंदन गए थे। कैसे गए थे, क्यों गए थे, वहां जाकर इन्होंने क्या हासिल किया, अब यह वापस क्यों आना चाहते हैं, हार्डी भारत में क्यों है, जैसे सवालों के जवाबों में ही पूरी कहानी का ताना-बाना बुना गया है।
राजकुमार हिरानी बतौर लेखक-निर्देशक अनूठे विषयों पर हमें कई उम्दा और सधी हुई फिल्में दे चुके हैं। उनकी बनाई ‘मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.’, ‘लगे रहो मुन्नाभाई’, ‘3 ईडियट्स’ और ‘पीके’ ने मसाला सिनेमा के दायरे में रह कर सार्थक सिनेमा रचने की अद्भुत मिसालें दी हैं। यहां तक कि संजय दत्त की छवि निखारने को बनाई गई उनकी ‘संजू’ को भी कहानी, पटकथा या फिल्म के स्तर पर नीचा नहीं दिखाया जा सकता। फिर भला वही हिरानी ‘डंकी’ में कैसे रास्ता भटक गए?
‘डंकी मारने’ जैसे विषय को हिन्दी फिल्मों में अभी तक प्रमुखता से नहीं दिखाया गया है। ऐसे में शाहरुख खान जैसे स्टार को लेकर इस विषय को उठाने का हिरानी का प्रयास अनूठा है। मगर क्या यह प्रयास सराहनीय भी है? जवाब है-बिल्कुल नहीं। दरअसल यह फिल्म पटकथा लेखन की बुनियादी शर्तों पर ही खरी नहीं उतरती है। इसे देखते समय आप भले ही न सोचें लेकिन बाद में जब आप इसके किरदारों की हरकतों, उनकी बातों, इसमें घट रही घटनाओं पर गौर करेंगे तो ढेरों सवाल आपके ज़ेहन में आएंगे मगर ‘डंकी’ उनमें से ज़्यादातर के जवाब आपको नहीं देगी। इस फिल्म की कहानी का प्रवाह ही सहज नहीं लगता। लगता है कि लेखक जबरन आपको वह दिखाना चाह रहे हैं जो उन्होंने लिख मारा है।
इस फिल्म के लगभग सभी किरदार अल्प-बुद्धि वाले हैं। लगता है कि उन्हें जान-बूझ कर ऐसा गड़ा गया ताकि आपको हंसी आए। लेकिन वह हंसी स्वाभाविक नहीं लगती। वैसे भी इस फिल्म के तमाम हास्य-दृश्य इसके ट्रेलरों में मौजूद हैं। उनसे हट कर फिल्म में कुछ नहीं है। फिल्म के किरदारों को जिस तरीके से लंदन में रहने की इजाज़त मिलती है, उसे देख कर आप अपना माथा पकड़ कर यह भी पूछ सकते हैं कि यही तरीका बाकी के लाखों गैरकानूनी अप्रवासी क्यों नहीं अपना लेते? 25 साल से लंदन में रह रहे लोग इस दौरान हार्डी के संपर्क में क्यों नहीं रहे? उनमें से एक की वापसी का कारण तो फिर भी जायज़ लगता है, बाकी के दोनों को क्या खुजली हुई?
फिल्म में हो रही घटनाओं और इसके किरदारों की बातों में एक ज़बर्दस्त बनावटीपन, नकलीपन दिखाई देता है। शाहरुख खान ने जब-जब पंजाबी बोली, बढ़िया बोली लेकिन पूरी फिल्म में पंजाबी लहज़े में बोली गई उनकी हिन्दी मुझ पंजाबी को पूरी फिल्म में अखरती रही। उन्हें बेवजह ‘फौजी’ बताया जाना खलता रहा। फौजी थे तो वापस फौज में क्यों नहीं गए? कुछ तो कारण बताते। तापसी के घर के बाहर लिखी तख्ती पर ‘रकबगंज’ गलत है हिरानी साहब, ‘रकाब गंज’ होना चाहिए था। ऐसी ढेरों चीज़ें हैं इस फिल्म में जो चुभती हैं, अपच करती हैं। इस बार हिरानी और उनके लेखकों की टीम गच्चा खा गई… या दे गई…? और फिल्म में इतना सारा नैरेशन क्यों है? एक किरदार पूरी फिल्म की कहानी दर्शकों को क्यों सुना रहा है? हिरानी साहब इस बेसिक बात को तो समझते ही होंगे कि जब निर्देशक के पास कहने-दिखाने वाली बातों-दृश्यों का अभाव हो तो वह नैरेशन का सहारा लेता है। फिल्म कहना क्या चाहती है, यह भी अंत में लिखी हुई इबारतों से ही स्पष्ट होता है जबकि इसे फिल्म की कहानी में गुंथा हुआ होना चाहिए था। ऊपर से इसकी सुस्त रफ्तार बोर करती रही, सो अलग।
शाहरुख को जबरन जवान दिखाना अजीब लगता है। उन्हें अब चिकने चेहरे के साथ पर्दे पर नहीं आना चाहिए। तापसी पन्नू सही रहीं। विक्रम कोचर, देवेन भोजानी जंचे। अनिल ग्रोवर ठीक रहे और कई जगह अपने भाई सुनील ग्रोवर की याद दिलाते रहे। बोमन ईरानी लुभा न सके। सबसे शानदार काम विक्की कौशल का रहा। उनके किरदार को उठाते तो फिल्म और उठ सकती थी। सैट्स का नकलीपन फिल्म की पोल खोलता रहा। बीच-बीच में बजते गानों के बोल कई जगह प्रभावी होने के बावजूद इस असरहीन फिल्म के साथ संगत न बिठा सके।
राजकुमार हिरानी ने घटनाओं व किरदारों को अधिक विश्वसनीय बनाया होता और यहां-वहां भटकने का ‘डंकी रूट’ अपनाने की बजाय कहानी कहने का सीधा रास्ता अपनाया होता तो यह फिल्म ढंग की बन सकती थी। फिलहाल तो यह बेढंगी है-अपनी चाल से भी और हाल से भी। इसे देख कर अफसोस होता है-एक अच्छे विषय की बर्बादी पर, एक उम्दा निर्देशक की नाकामी पर।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-21 December, 2023 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
कोई शक नहीं कि फ़िल्में कई बार आइना दिखाती है लेकिन क्या वह आइना सही है या गलत ये तो देखने वाले को देखना होगा….!!
जवानी की एक सीमा होती है…. अब्ब तो बस करो खान साहब और इनको जवान बनाने वाले प्रोडूसर और निर्देशक साहब…
अफ़सोस होता है जब – जब कोई सफल निर्देशक एक असफल प्रयोग करता है… येबॉलीवुड कोई प्रयोगशाला नहीं कि दो -चार केमिकल मिलाकर दोबारा से सही केमिस्ट्री बना देंगे….. यहाँ तो एक प्रयोग लोगों कि पूरी उम्र तबाह कर देता है….
बड़े कलाकारों को एक घटिया स्क्रिप्ट पर फ़िल्म बनाई जाय तो क्या वाह हिट हो जाएगी…. नहीं साहिब जी वह तो औरऔर ओंधे मुँह गिर जाएगी…
नकली कम से कम ऐसा तो हो जो असली सा लगे… लेकिन ये क्या इस पूरी फ़िल्म में असली भी नकली ही लगे….. कलाकार भी और हीरानी जी की बुद्धिमिता भी….
फॅमिली क़े साथ गप -साप करते हुए एक पार्क में पॉप कॉर्न खाना इस फ़िल्म में पैसे और टाइम दोनों को बर्बाद करने से बेहतर होगा…
Danki ak behtrin flim hai jo aap Puri family ka saat injoy karsakte ho Aaj kal ki behodafilmon se lakh Guna behtar hai