-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
एक बड़ा-सा घर, उसमें ढेर सारे किरदार। एक लव-स्टोरी और बहुत सारे रोड़े। एक झूठ और उसे छुपाने के लिए झूठ पर झूठ। अंत में सब लोग एक जगह और फिर कॉमेडी भरे एक्शन सीन। बड़े पर्दे पर छह सौ छप्पन दफा देखे जा चुके इस फॉर्मूले को अगर निर्देशक बार-बार ट्राई करते हैं तो जा़हिर है कि अभी भी इसमें कुछ तो रस बाकी है। लेकिन दिक्कत तब होती है जब इस रस को निचोड़ने वाले हाथों में ही दम न हो।
रॉयल होने का गुरूर पाले बैठे राजस्थान की किसी रियासत के पूर्व राजा (अनुपम खेर) का लंदन में पढ़ रहा बेटा वीर (तुषार कपूर) अपनी बहन की शादी में अपनी पंजाबन गर्लफ्रेंड चांदनी (कुलराज रंधावा) को ले तो आता है लेकिन पिता से सच नहीं बोल पाता। बेटे को इसी लड़की से शादी करनी है लेकिन बाप को चाहिए किसी शाही राजपूत खानदान की बेटी। शादी के इन चार दिनों में चांदनी के मां-बाप (फरीदा जलाल और ओम पुरी) के अलावा और भी कई किरदार अपनी असली पहचान छुपा कर आते हैं। यहां तक कि वीर को भी चांदनी के लिए पप्पी सरदार बनना पड़ता है। अंत में राजा के दुश्मनों को सबक सिखा कर ये सब उसके झूठे गुरूर को तोड़ते हैं और हो जाती है हैप्पी एंडिंग।
अब ऐसा नहीं है कि इस कहानी पर एक अच्छी रोमांटिक-कॉमेडी नहीं बनाई जा सकती। स्क्रिप्ट के साथ कायदे से खेला जाए तो यह काम बखूबी हो सकता है और दसियों बार हुआ भी है। लेकिन इस फिल्म की सबसे बड़ी कमज़ोरी ही इसकी स्क्रिप्ट है जो एक तय स्तर से ऊपर उठ ही नहीं पाती। घिसे हुए चुटकुलों और कॉमिक-पंचेज़ के बाद अगर कुछ न मिले तो अश्लील संदर्भों का सहारा लेकर भी यह फिल्म आपके चेहरे पर मुस्कान तो लाती है लेकिन उसे ठहाकों में तब्दील नहीं कर पाती।
दिक्कत कैरेक्टराइज़ेशन के साथ भी है। कॉमेडी फ्लेवर वाली फिल्म है तो क्या सब लोग उसमें आधे पागल और जोकरनुमा ही होंगे? जिसे देखिए वही चिल्लाए जा रहा है। तुषार कपूर पर्दे पर खुद जितना हंसे हैं उसका दसवां हिस्सा भी यदि वे दर्शकों को नहीं हंसा पाए हैं तो कसूर उनसे ज़्यादा उनके कमज़ोर किरदार का है। फिल्म में रोमांस है लेकिन इसकी खुशबू सिरे से नदारद है। ढेरों चरित्रों की भीड़ में ज़्यादातर का स्वभाव ही उभर कर नहीं आ पाया और न ही उन्हें निभाने वाले कलाकारों का कायदे से इस्तेमाल हो पाया। चंद्रचूड़ सिंह, हरीश, अवतार गिल, अनीता राज, हेमंत पांडेय, जॉनी लीवर, फरीदा जलाल जैसे कलाकारों से फिल्म कुछ नहीं करवा पाती।
तुषार कपूर की अपनी सीमाएं हैं और वह जैसे-तैसे उनमें रह कर अपना काम कर ही जाते हैं। कुलराज रंधावा ज़रूर प्रभावित करती हैं। अनुपम खेर और ओम पुरी मंजे हुए हैं और अपने किरदारों में बखूबी समा भी जाते हैं। मुकुल देव, सुशांत सिंह, राहुल सिंह ठीक रहे। फिल्म में कई हिट पुराने गानों के टुकड़ों का इस्तेमाल है और बस वही सुहाते भी हैं। कोशिश तो निर्देशक समीर कार्णिक ने काफी की कि पुराने गानों की तरह हिट फिल्मों के पुराने और आजमाए जा चुके फॉर्मूलों को लेकर वह अपनी पिछली हिट फिल्म ‘यमला पगला दीवाना’ की तरह एक शानदार फिल्म बना लेंगे लेकिन ऐसा हो नहीं पाया है और यह फिल्म चार दिन की चांदनी भी बिखेर पाए तो गनीमत होगी।
अपनी रेटिंग-2 स्टार
(नोट-मेरा यह रिव्यू इस फिल्म की रिलीज़ के समय ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुआ था।)
Release Date-09 March, 2012
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)