-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
मुंबई के जुहू बीच पर जाने कहां से एक पुराना जहाज आ फंसा है। जहाज पर कोई नहीं है। शिपिंग कॉरपोरेशन के अफसर को जहाज की जांच में अहसास होता है कि यहां अजीबोगरीब हरकतें होती हैं। उसे लगता है कि यहां कोई है। कौन…? कोई भूत या फिर…! क्या यह हकीकत है या सिर्फ उसका वहम क्योंकि खुद उसे भी तो अक्सर अपनी मरी हुई बीवी और बेटी दिखाई देती रहती हैं। कैसे मुक्ति दिलाएगा वह इस ‘भूत’ को और इस जहाज को? और क्या इसी में ही छुपी है खुद उसकी भी मुक्ति?
हिन्दी में बनने वाली ज़्यादातर ‘भूतिया’ फिल्मों की कहानी का ढांचा लगभग एक-सा होता है। किसी हॉन्टेड जगह में फंसी कोई आत्मा, भूत, चुड़ैल टाइप की चीज, उससे त्रस्त नायक या नायिका, उसे मुक्ति दिलाने की कोशिश में साथ देता कोई तांत्रिक, बाबा, प्रोफेसर टाइप बंदा वगैरह। यह फिल्म (भूत-पार्ट वन-द हॉन्टेड शिप) सिर्फ इस मायने में अलग है कि इसमें हॉन्टेड जगह कोई इमारत नहीं बल्कि एक शिप है और इस शिप पर क्या हुआ था इसकी जानकारी नायक को वहां मिले एक कैमरे से मिलती है। इसे फिल्म-तकनीक की भाषा में ‘फाउंड फुटेज जॉनर’ कहा जाता है। इस विधा की फिल्में हॉलीवुड में तो काफी बनी हैं लेकिन अपने यहां इसका इस्तेमाल काफी कम हुआ है। जहाज पर अतीत में हुई अनोखी घटनाओं और कैमरे में कैद मिली फुटेज के ज़रिए जिस तरह से कहानी की परतें खुलती हैं, वे इसकी साधारण कहानी को भी अलग बनाती हैं। यही कारण है कि हल्की होने के बावजूद यह फिल्म अपने कलेवर से निराश नहीं करती और कमोबेश बांधे रखती है।
हॉरर फिल्मों को देखने वालों का एक ही मकसद होता है कि उसमें ‘डर’ की इतनी खुराक तो हो जो उन्हें रोमांचित कर सके। इसके लिए अमूमन ऐसी सभी फिल्मों में झटके से आने वाले दृश्य डाले जाते हैं जो अचानक से आकर दर्शक को हिला दें। इस फिल्म में सात-आठ बार ऐसा हुआ है और डर कर आनंदित होने की दर्शकों की इच्छा इससे पूरी होती है। पहली बार निर्देशक बने भानु प्रताप सिंह की यह सफलता है। लेकिन बतौर लेखक भानु निराश करते हैं। कहानी के मूल ढांचे को उन्होंने पुराने आजमाए हुए ढर्रे पर ही रखा है। प्रोफेसर बने आशुतोष राणा का किरदार फिल्म में न होता और नायक खुद अपनी हिम्मत से अपने डर को जीतता तो फिल्म ज़्यादा सार्थक लगती। तकनीकी तौर पर फिल्म उन्नत है। हॉरर फिल्मों के लिए ज़रूरी समझे जाने वाली दोनों चीज़ें-कैमरा और बैकग्राउंड म्यूज़िक, ज़बर्दस्त हैं।
विक्की कौशल अपनी सहजता से प्रभावित करते हैं। थोड़ी देर के लिए दिखीं भूमि पेढनेकर सुहाती हैं। मेहर विज, आशुतोष राणा व बाकी कलाकार जंचे हैं। अपनी कम लंबाई के चलते फिल्म अखरती नहीं है और अपने अगले पार्ट के लिए रास्ता भी खोलती है। डर कर मज़ा लेने वालों को यह भाएगी।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-21 February, 2020
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)