-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘सिनेमा वह असरदार है जिसे आंखों से सुना जाए और कानों से देखा जाए।’
यह पंक्ति किस ने कही थी यह तो याद नहीं मगर अनुराग बसु की ‘बरफी’ देखने के बाद यह बार-बार याद ज़रूर आती है। यह फिल्म दरअसल है ही कुछ ऐसी जिसे देख कर किसी भले-चंगे इंसान को अपनी इंद्रियों की क्षमता पर शुबह हो सकता है कि अगर हमारे साथ सब कुछ ठीक-ठाक है तो बरफी और झिलमिल जैसे इस फिल्म के लोग हमसे ज़्यादा समर्थ कैसे हो सकते हैं?
बरफी-जो न तो बोल सकता है और न ही सुन सकता है, वह म्यूट ही आंसू बहाता है। उधर झिलमिल है जो ऑटिज़्म से पीड़ित है। कहने को ये दोनों एब्नॉर्मल हैं, अधूरे हैं लेकिन इनकी अपनी एक दुनिया है जिसमें ये किसी से भी ज़्यादा नॉर्मल हैं, पूरे हैं और दूसरों से कहीं बढ़ कर ज़िंदगी को जीना और समझना जानते हैं। और जब ये दोनों मिलते हैं तो मुकम्मल हो जाते हैं।
पहले सीन से ही यह फिल्म दर्शकों को बांध लेती है और धीरे-धीरे यह पकड़ और ज़्यादा मजबूत होती चली जाती है। बरफी यानी दार्जिलिंग में रहने वाला वह मस्तमौला लड़का जिसका नाम उसके पिता ने एक रेडियो के नाम पर मरफी रखा था। जो बोल-सुन नहीं सकता पर जब समझने पर आता है तो अनकही बातें भी सुन लेता है और समझाने पर आता है तो बिना कुछ कहे ही सब समझा देता है। ज़िंदगी तो उसके लिए जैसे फुटबॉल है जिसे वह बस हर समय खेलते, उछालते रहना चाहता है। दर्द उसके सीने में भी हैं, ज़ख्म उसने भी खाए हैं पर वह इन्हें दिखाता नहीं घूमता। कभी चार्ली चैप्लिन तो कभी ‘मेरा नाम जोकर’ के राजू का अक्स इस किरदार में साफ झलकता है।
इस म्यूट बरफी को प्यार होता है श्रुति से जो अपने एक दोस्त से शादी करने जा रही है। श्रुति चली जाती है तो बरफी को अपने बचपन की वह दोस्त झिलमिल मिलती है जिसकी ज़िंदगी खुद उसके मां-बाप के लिए बोझ है लेकिन इसी बोझ के सहारे उनकी अपनी ज़िंदगी ऐश से कट रही है। कभी श्रुति के साथ ‘झिलमिल सितारों का आंगन होगा’ का ख्वाब देखने वाला बरफी आखिर अपने आंगन में झिलमिल को ले आता है। क्लाईमैक्स दिल को चीरने वाला है जब उम्र भर साथ रहे बरफी और झिलमिल एक साथ चिरनिद्रा में सो जाते हैं।
अपनी कहानी, पटकथा और संवादों के अलावा यह फिल्म अपनी चुप्पी के लिए भी याद की जाएगी। लगातार कुछ कहने वाली इस चुप्पी को इसके बैकग्राउंड म्यूज़िक का ज़बर्दस्त सहारा मिला है। फिल्म का गीत-संगीत इसे और प्रभावी बनाता है। लोकेशन हों, फोटोग्राफी हो या फिर अनुराग बसु का निर्देशन, पर्दे पर बहती किसी कविता जैसी लगती है यह फिल्म।
रही बात एक्टिंग की, तो रणबीर कपूर ने एक बार फिर साबित किया है कि वह कपूर खानदान के असली रोशन चिराग हैं। अपने तीन बुजुर्गों-शशि कपूर की गुड लुक्स, शम्मी कपूर की चंचलता और राज कपूर के अभिनय की गहराई उन्होंने एक साथ इस एक किरदार में उड़ेल दी है। अपनी परफॉर्मेंस के लिए रणबीर की झोली पुरस्कारों से भर जाए तो हैरान मत होइएगा। प्रियंका चोपड़ा को कम मौके मिले लेकिन उन्होंने भरपूर काम किया। नई तारिका इलेना डिक्रूज़ की क्षमताएं प्रभावित करती हैं। सौरभ शुक्ला का काम एक लंबे समय बाद इस कदर प्रभावशाली बन पाया है।
इस फिल्म में ज़िंदगी की वह मिठास है जो आपके दिलोदिमाग पर बरसों-बरस तारी रह सकती है। यह आपको गुदगुदाती है, रोमांचित करती है और कहीं-कहीं बरफी के पात्र से ईर्ष्या भी करवाती है। तो, डूब जाइए इसमें, चख लीजिए इस ‘बरफी’ को, यह आपकी ज़िंदगी को और मीठा बना सकती है।
अपनी रेटिंग-4 स्टार
(नोट-14 सितंबर, 2012 को इस फिल्म की रिलीज़ के समय मेरा यह रिव्यू किसी पोर्टल पर प्रकाशित हुआ था। साथ ही मैंने दूरदर्शन के डी.डी.न्यूज़ चैनल पर भी इसका रिव्यू किया था जिसे इस लिंक पर क्लिक करके देखा जा सकता है।)
Release Date-14 September, 2012
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)