-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘बागी 2’ का शो शुरू होने से पहले ही मैं थिएटर की कैंटीन से भेलपूरी की प्लेट ले आया था। बड़ी वाली। बंदे ने बड़े ही उत्साह से एक भगौने में कई तरह की नमकीन, सेव, मुरमुरे, चिप्स, नमक, 2-3 किस्म के मसाले, 3-4 किस्म की चटनियां डालीं। उन्हें जबड़-जबड़ हिला-हिला कर मिक्स किया, प्लेट में डाला, ऊपर से नींबू निचोड़ा और मूंगफली के दाने और हरे धनिए से सजा कर मुझे थमा दिया। मैं भी कई घंटे का भूखा, इस सारे मिक्स-मसाले को फटाफट चट कर गया। मजा भी आया और लगा कि पेट भी भरा है। लेकिन फिल्म खत्म होते-होते मेरी जुबान पर बस हल्का-सा स्वाद बाकी बचा था और 144 मिनट पहले भरा पेट अब फिर से खाली लग रहा था।
तो दोस्तों, यह था ‘बागी 2’ का मेरा रिव्यू…। ओह, सॉरी…! आप सोच रहे होंगे कि भेलपूरी में ‘बागी 2’ कहां से आ गई? दरअसल यह फिल्म भी किसी भेलपूरी की प्लेट से कम नहीं है। सब कुछ है इसमें। देशभक्ति के मसाले से शुरू करके प्यार-मोहब्बत, एक्शन-इमोशन, मारधाड़, रिश्तों की तकरार, डांस-रोमांस, हंसना-रुलाना… कुछ भी तो नहीं छोड़ा इसे लिखने वालों ने। यह अलग बात है कि एक्शन को छोड़ कर बाकी सब न सिर्फ बहुत थोड़ा है बल्कि बहुत हल्का और बासा भी है। पूरी फिल्म में एक्शन ही है जो देखने लायक है और याद रह जाता है।
अपनी पुरानी प्रेमिका की पुकार पर कश्मीर से गोआ आकर उसकी बेटी को तलाशता अपना रैम्बो-नुमा हीरो आर्मी का कमांडो है लेकिन एक सीन में गोआ का चरसी-नशेड़ी सन्नी उसे जिस तरह से दौड़ाता-छकाता है, शक होने लगता है कि ज्यादा फुर्तीला कौन है? और आर्मी कमांडो किस तरह से ऑपरेट करते हैं इसकी उम्मीद अपने हिन्दी फिल्म वालों से करना उतनी ही बड़ी मूर्खता होगी जितनी अप्रैल फूल के दिन व्हाट्सएप्प पर आ रहे ‘बागी 2’ के लिंक को खोल कर उसमें पूरी फिल्म को पाने की।
कोरियोग्राफर अहमद खान की अब तक बतौर डायरेक्टर आई दोनों फिल्में ‘लकीर’ और ‘फूल एन फाइनल’ खासी पकाऊ थीं और अब ‘बागी 2’ से यह तय हो चुका है कि वह ऐसी ही फिल्में बना सकते हैं जिनमें मसाले तो होंगे, सिर-पैर नहीं। देखनी हैं तो देखो, वरना हवा आने दो।
टाइगर श्रॉफ के चाहने वाले उन्हें भले ही ऐसे किरदारों में पसंद करते हों लेकिन लगातार ऐसी फिल्में करके टाइगर खुद का नुकसान ही कर रहे हैं। हर फिल्म में वही, अनाथ, अकेला, कम बोलने और ज्यादा हाथ-पांव चलाते हुए जिमनास्ट-नुमा डांस करने वाला एक्शन हीरो-यह ठप्पा उन्हें महंगा पड़ेगा। दिशा (पटनी, पाटनी, पाटानी, पटानी, पत्नी… जो कोई भी है) के हिस्से रोल तो ठीक-सा ही आया मगर वह कुछ खास असर छोड़ न सकीं। दीपक डोबरियाल नींबू की तरह रसीले लगे और रणदीप हुड्डा हरे धनिए की तरह आखिर में आकर छाए रहे। मनोज वाजपेयी ने निराश किया। न उनके किरदार में दम था न उनके काम में। उन्हें यह रोल लेने से पहले खुद को इस किरदार में इमेजिन करना चाहिए था। दर्शन कुमार की जगह कोई और भी होता तो फर्क नहीं पड़ना था। प्रतीक बब्बर कब तक खुद को दिलासा देते रहेंगे? उन्हें कुमार गौरव से प्रेरणा लेते हुए फिल्मों से दूर हो जाना चाहिए।
एक पुराने फिल्मी और एक पुराने पंजाबी गाने का नया वर्जन जिस फिल्म में हो तो समझ लेना चाहिए कि उस फिल्म का म्यूजिक बनाने वालों के पास खुद का कुछ नहीं है देने को। और ‘एक दो तीन…’ जैसे गाने में जैक्लिन जैसी खूबसूरत बाला भी अगर भौंडी लगे तो कसूर कोरियोग्राफर का ज्यादा है जो उनका इस्तेमाल नहीं कर सका।
पिछली वाली ‘बागी’ से इस फिल्म का कोई नाता नहीं है और न ही इस फिल्म पर ‘बागी 2’ नाम फिट बैठता है।
बेअसर प्यार, भावहीन इमोशन्स और लचर स्क्रिप्ट की रेलमपेल से जूझते हुए मात्र (शानदार) एक्शन के लिए ‘बागी 2’ को देख सकें तो ठीक, वरना काफी अझेल फिल्म है यह। भेलपूरी भी इससे बेहतर होती है।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
Release Date-30 March, 2018
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)