-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘यह है देश का रेडियो। हिन्दुस्तान में कहीं से, कहीं पे हिन्दुस्तान में।’
यह फिल्म दिखाती है कि 1942 में भारत छोड़ों आंदोलन के समय देशप्रेम की ललक लिए हुए 22 साल की उषा मेहता ने न सिर्फ आजीवन कुंवारी रहने की शपथ ली बल्कि जब सभी बड़े नेताओं को जेलों में कैद कर दिया गया तो उसने अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर ‘कांग्रेस रेडियो’ नाम से एक गुप्त रेडियो सेवा भी शुरू की जिसने देश भर में आज़ादी के आंदोलन की हवा बनाए रखी। यह फिल्म उषा, उसके साथियों और उस रेडियो को चलाने व अंग्रेज़ों से बचाए रखने की उनकी कोशिशों को दिखाती है।
आज़ादी की लड़ाई के गुमनाम नायकों पर फिल्में आती रही हैं, आनी भी चाहिएं ताकि हम भारत के लोग उनके बारे में जान सकें जिन्होंने हमारे लिए खुद को मिटा डाला। लेकिन जब ये फिल्में भुरभुरी और खुरदरी हों तो ये अपने मकसद में सफल नहीं हो पाती हैं। इस फिल्म के साथ भी यही हुआ है।
सबसे पहले तो यह बिना किसी भूमिका के शुरू हो जाती है गोया कि इसे देखने वाले हर शख्स को उषा मेहता और उनके कामों के बारे में पहले से ही पता होगा। इसे लिखने वाले दारब फारूक़ी और कण्णन अय्यर ने यह क्यों नहीं सोचा कि हम लोगों को स्वतंत्रता संग्राम के सिर्फ कुछ ही चेहरों के बारे में खुल कर पढ़ाया-बताया गया है। उषा जैसे उन दबे-छुपे सैंकड़ों-हज़ारों लोगों पर फिल्म बनानी है तो उनके बारे में पहले कुछ बताओ तो सही। दूसरी बात इसकी स्क्रिप्ट बहुत ही रुटीन और साधारण किस्म की है जिसमें कसावट न होने के कारण उंगलियां बार-बार इसे फॉरवर्ड करने को हुमकती हैं। संवाद चलताऊ हैं और खलते हैं।
‘एक थी डायन’ बना चुके कण्णन अय्यर ने बतौर निर्देशक फिल्म को संभाले रखने की भरपूर कोशिश की है। 1942 के माहौल को खूब रचा गया है। लेकिन एक साधारण स्क्रिप्ट और उतने ही साधारण दृश्य-संयोजन ने उनकी कोशिशों को बांधे रखा जिससे यह फिल्म भीड़ का हिस्सा होकर रह गई।
सधे हुए कलाकारों की गैरमौजूदगी भी इस फिल्म की एक बड़ी कमी है। सारा अली खान ने अपने तईं भरपूर कोशिशें कीं लेकिन उषा मेहता के किरदार में वह फिट नहीं दिखीं। थिएटर से आई कोई अभिनेत्री इस भूमिका के साथ अधिक न्याय कर पाती। इमरान हाशमी ने डॉ. राम मनोहर लोहिया का ‘एक्टिंग’ ठीक-ठाक ढंग से की। अन्य कलाकारों में एक स्पर्श श्रीवास्तव ही प्रभावित कर पाए। कुछ नामी चेहरे इस फिल्म को अधिक पुख्ता बना सकते थे।
गीत-संगीत साधारण रहा। मुंबई की पृष्ठभूमि में पंजाबी शब्दों वाला गीत करण जौहर के बैनर से आई फिल्म में ही हो सकता है। इस बात पर भी हैरान हुआ जा सकता है कि कई बेहतरीन फिल्में बना चुके फिल्मकार केतन मेहता ने अपनी बुआ उषा मेहता की कहानी को पर्दे पर उतारने में अब तक दिलचस्पी क्यों नहीं दिखाई?
बावजूद कई सारी कमियों के अमेज़न प्राइम पर आई इस फिल्म को देखा जाना चाहिए क्योंकि यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम की एक ऐसी गुमनाम नायिका की कहानी दिखाती है जिसे इतिहास की किताबों में भी र्प्याप्त जगह न मिली। इतिहास की गति सिर्फ किताबों में ही नहीं होती, सिनेमा भी उसमें अपनी भूमिका निभाता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-21 March, 2024 on Amazon Prime
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
ऐसी ही गुमनाम नायकों को पर्दे पर उतारकार हमें उनकी बदौलत मिली आज़ादी को दर्शाने का श्रेय तो बॉलीवुड को जाता है….. अगर खामियों को नज़रअंदाज़ कर हम इस फ़िल्म को देखते हैँ तो वाकई कमाल क़ी है….
रेटिंग थ्री स्टार तो बनते ही हैँ..