-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
2006 में सुभाष घई के बैनर से एक मिस्ट्री-कॉमेडी फिल्म आई थी ‘36 चाइना टाउन’ जिसे अब्बास-मस्तान ने निर्देशित किया था। अब उन्हीं सुभाष घई के बैनर से ज़ी-5 पर आई है ‘36 फार्म हाउस’ जिसे राम रमेश शर्मा ने डायरेक्ट किया है। यह भी एक मर्डर मिस्ट्री वाली कॉमेडी-फैमिली फिल्म है। खास बात यह भी है कि जहां ‘36 चाइना टाउन’ में घई साहब का कोई रचनात्मक योगदान नहीं था वहीं इस वाली फिल्म की कहानी लिखने के साथ-साथ उन्होंने न सिर्फ इसके गाने लिखे हैं बल्कि उन गानों की धुनें भी तैयार की हैं। किसी जमाने में शो-मैन कहे जाने वाले शख्स ने इतनी सारी रचनात्मकता दिखाई है तो जाहिर है कि फिल्म भी धांसू ही बनी होगी? आइए, देखते हैं।
मई, 2020। लॉकडाउन लगा हुआ है। मुंबई के करीब कहीं 36 नंबर के फार्म हाउस में रह रहे रौनक सिंह से मिलने उनके भाइयों का वकील आता है और गायब हो जाता है। सबको यही लगता है कि रौनक ने उसे मार डाला। विवाद का विषय है यही 36 नंबर का फार्म हाउस जो रौनक की मां ने उसके नाम कर डाला है। घर में कई सारे नौकर हैं और बाहर से भी कुछ लोग आ जाते हैं। पुलिस भी यहां आती-जाती रहती है। अंत में सच सामने आता है जो इस फिल्म की टैगलाइन ‘कुछ लोग ज़रूरत के चलते चोरी करते हैं और कुछ लालच के कारण’ पर फिट बैठता है।
यदि यह कहानी सचमुच सुभाष घई ने लिखी है तो फिर इस फिल्म के घटिया, थर्ड क्लास और पिलपिले होने का सारा श्रेय भी उन्हें ही लेना चाहिए। न वह बीज डालते, न यह कैक्टस पैदा होता। 2020 में जब पहली बार लॉकडाउन लगा था तो कभी पानी तक न उबाल सकने वाले लोग भी रोजाना नए-नए पकवान बना कर अपने हाथ की खुजली मिटा रहे थे। इस फिल्म को देख कर ऐसा लगता है कि घई साहब ने भी बरसों से कुछ न लिखने, बनाने की अपनी खुजली मिटाई है। इस कदर लचर कहानी लिखने के बाद उन्होंने इसकी स्क्रिप्ट भी उतनी ही लचर बनवाई है। फिल्म में मर्डर हो और दहशत न फैले, मिस्ट्री हो और रोमांच न जगे, कॉमेडी हो और हंसी न आए, फैमिली ड्रामा हो और देखने वाले को छुअन तक न हो तो समझिए कि बनाने वालों ने फिल्म नहीं बनाई, उल्लू बनाया है-हमारा, आपका, सब का।
राम रमेश शर्मा का निर्देशन पैदल है। लगता है कि निर्माता सुभाष घई ने उन्हें न तो पूरा बजट दिया न ही छूट। ऊपर से एक-दो को छोड़ कर सारे कलाकार भी ऐसे लिए गए हैं जैसे फिल्म नहीं, मैगी बना रहे हों, कि कुछ भी डाल दो, उबलने के बाद कौन-सा किसी को पता चलना है। संजय मिश्रा जैसे सीनियर अदाकार ने इधर कहीं कहा कि उन्होंने इस फिल्म के संवाद याद करने की बजाय सैट पर अपनी मर्ज़ी से डायलॉग बोले। फिल्म देखते हुए उनकी (और बाकियों की भी) ये मनमर्ज़ियां साफ महसूस होती हैं। जिसका जो मन कर रहा है, वह किए जा रहा है। अरे भई, कोई तो डायरेक्टर की इज़्ज़त करो। विजय राज हर समय मुंह फुलाए रहे, हालांकि प्रभावी रहे। बरखा सिंह, अमोल पराशर, राहुल सिंह, अश्विनी कलसेकर आदि सभी हल्के रहे। माधुरी भाटिया ज़रूर कहीं-कहीं असरदार रहीं। फ्लोरा सैनी जब भी दिखीं, खूबसूरत लगीं।
गाने घटिया हैं और उनकी धुनें भी। सच तो यह है कि सुभाष घई ने यह फिल्म बना कर अपमान किया है-उन सुभाष घई का जिन्होंने कभी बहुत बढ़िया फिल्में देकर शोमैन का खिताब पाया था। घई साहब, आपकी इस गलती के लिए घई साहब आपको कभी माफ नहीं करेंगे।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-21 January, 2022
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Review likha h ya ghai sahab ko kanhi muh dikhane layak nhi chhoda h apne ???
यह उन्हें इस तरह से फिल्म बनाने से पहले (या बाद में भी) सोचना चाहिए था…
मैगी सेहत के लिये ठीक नहीं होती
हा… हा… हा…
Subhash Ghai ko ye review zrur post krna
अब तक तो पहुंच ही गया होगा उन तक…
The quality of the film might not be good, but the writing quality of the review could have been better. I feel he was angry while he was writing the review (perhaps he was thinking of the wastage of money and time.)
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शुक्रिया दादा… पैसे और समय का नुकसान हो तो दुःख होता ही है… फिर भी यकीन कीजिए कि यह रिव्यू गुस्से में नहीं लिखा गया… अगर कुछ अफ़सोस था भी तो इस बात का कि सुभाष घई जैसा विराट शख्स इस कदर थकी हुई फिल्म बनाए… अपन सिनेमा के दीवाने हैं, कोई अगर बुरा सिनेमा बनाएगा तो उसकी बुराई करने से पीछे नहीं हटेंगे…