-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
2016 का साल। कश्मीर का बारामूला कस्बा। वही बारामूला जिसे वराहमूल और वर्मूल भी कहा गया। एक फंक्शन में तमाशा दिखा रहे जादूगर के बक्से से स्थानीय एम.एल.ए. का बच्चा ’गायब’ हो जाता है। तफ्तीश के लिए डी.एस.पी. रिदवान की वहां पोस्टिंग होती है। कुछ और बच्चे भी ’गायब’ हो रहे हैं। रिदवान को उन आतंकियों पर शक है जो बच्चों को पत्थरबाज बना रहे हैं। उधर जिस पुराने मकान में रिदवान और उनका परिवार रह रहा है वहां भी कुछ अजीब हरकतें हो रही हैं। कोई साया है जो उनके बेटे के संग खेलता है। बेटी को लगता है कि इस घर में कोई कुत्ता भी है। एक दिन रिदवान की बेटी भी ’गायब’ हो जाती है। कौन है इसके पीछे? क्या राज़ है इस घर का? बच्चे ’गायब’ क्यों हो रहे हैं, कैसे हो रहे हैं, कौन कर रहा है, कहां हैं वे बच्चे…?
किसी पुराने मकान में आए नए लोगों के साथ हो रहीं अजीबोगरीब हरकतों पर बनी फिल्में हम देखते आए हैं। कश्मीर में आतंकियों की हरकतों को भी हम फिल्मों में देख चुके हैं। इस फिल्म में इन दोनों कहानियों की रस्सियों को जिस तरह से आपस में गूंथा गया है, वही इसकी सबसे बड़ी खासियत है। एक तरफ आतंकी हरकतें और दूसरी ओर घर में हो रहीं रहस्यमयी घटनाएं आपको बेचैन करती हैं। कभी लगता है कि यह फिल्म सस्पैंस थ्रिलर वाले ट्रैक पर है तो कभी यह सुपरनैचुरल हॉरर वाली पटरी पर चल पड़ती है। दो घंटे की यह फिल्म अपने पत्ते खोलने में डेढ़ घंटे का वक्त लेती है। इस दौरान यह ज़्यादातर समय अपने रहस्य के ज़रिए बांधे रखती है तो बीच-बीच में खिंचती हुई-सी भी लगती है। लेकिन जब रहस्य खुलता है और असली वजह सामने आती है तो आप अपलक हो उठते हैं। इस कहानी में यह एंगल भी निकल कर आएगा, यह आप पहले-से नहीं सोच पाते। और सच पूछिए तो यह एंगल ही इस कहानी को अलग, दमदार और असरदार बनाता है। यहीं पर ही वह मोड़ आता है जब आप सन्न होकर इसे देखते हैं, समझने लगते हैं और इसमें खो जाते हैं। चाहे-अनचाहे यह कहानी आपको कचोटने लगती है, आपके हृदय की पीड़ा को आंखों के कोरों से बह जाने का मौका देती है और मन में यह इच्छा सिर उठाती है कि ये बैरी हवाएं रुकें और केसर के फूलों से कश्मीर के आंगन फिर गुलज़ार हों।
आदित्य धर व आदित्य सुहास जांभले ने अपनी परिपक्व लिखाई से इस कहानी की ऊंच-नीच को जिस तरह से उकेरा है, उससे वे सराहना के हकदार हो जाते हैं। हालांकि इनकी लिखी स्क्रिप्ट कहीं-कहीं डगमगाई है और कुछ जगह यह भी महसूस होता है कि कुछ और कसावट इसे सही दिशा दे सकती थी।
बतौर निर्देशक आदित्य सुहास जांभले ने बरसों पहले अपनी मराठी शॉर्ट फिल्म ‘आबा… एकते ना?’ से चौंकाया था। बाद में ‘आर्टिकल 370’ से उन्होंने अपना दम दिखाया और अब इस फिल्म से वह हमें हॉरर और सस्पैंस की मिली-जुली दुनिया में जिस तरह से ले जाते हैं, उससे उनका कद और ऊंचा ही हुआ है।
रिदवान के किरदार में मानव कौल प्रभावी रहे हैं। उनकी बेटी नूरी के किरदार में अरिस्ता मेहता का काम भी अच्छा रहा है। काम बाकी कलाकारों का भी ठीक है। लेकिन अभिनय के मामले में यह फिल्म भाषा सुंबली की है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ में उनका काम दमदार था जिसके बाद वह राकेश चतुर्वेदी ‘ओम’ की फिल्म ‘मंडली’ में भी दिखी थीं। लेकिन इस बार तो उन्होंने जैसे अपने आने का बिगुल-सा बजा दिया है।
नेटफ्लिक्स पर आई यह फिल्म तकनीकी तौर पर भी उन्नत है। कैमरे, रंगों, लाइट्स, मेकअप, लोकेशन आदि के सटीक इस्तेमाल से यह विश्वसनीय हो उठती है। फिल्म के अंत में एक लोरी है। इसके बोल सुनिए तो दिल हुमकने लगता है। लगता है अवश्य ही कश्मीर की वादी को किसी का शाप लगा है। जहां लाखों बेकसूर लोगों पर अत्याचार हुए हों, वह जगह धरती की जन्नत तो कत्तई नहीं हो सकती।
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Release Date-7 November, 2025 on Netflix
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
