-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘होमबाउंड’ इस साल भारत की ओर से ऑस्कर पुरस्कार के लिए ऑफिशियल एंट्री के तौर पर भेजी गई है। 2015 में अपनी पहली फिल्म ‘मसान’ से प्रशंसाएं पाकर सबकी नजरों में आए निर्देशक नीरज घेवान की इस फिल्म को कान और टोरंटों जैसे प्रतिष्ठित फिल्मोत्सवों में सराहना मिल चुकी है।
‘होमबाउंड’ की कहानी कश्मीरी मूल के एक पत्रकार बशारत पीर के ‘द न्यूयॉर्क टाइम्स’ में छपे एक लेख को आधार बना कर लिखी गई है। जम्मू-कश्मीर के एक बड़े सरकारी अधिकारी के बेटे बशारत कश्मीर में अपने शुरुआती साल गुज़ारने के बाद पढ़ाई के लिए पहले अलीगढ़ फिर दिल्ली और उसके बाद अमेरिका जाकर बच चुके हैं। 2008 में उन्होंने कश्मीर पर ‘कर्फ्यूड नाइट’ नाम से एक किताब लिखी। यह किताब जम्मू-कश्मीर के विश्वविद्यालयों में भी लगी लेकिन बाद में शिक्षाविदों ने इसे यह कह कर सलेबस से हटा दिया कि ‘‘इस तरह का प्रतिरोध साहित्य छात्रों के बीच अलगाववादी मानसिकता और आकांक्षा को बनाए रखता है।’’ इसके बाद उन्होंने विशाल भारद्वाज को शेक्सपियर के ‘हेमलेट’ की कहानी को कश्मीर में स्थापित करते हुए उनकी फिल्म ‘हैदर’ में रूपांतरित करने में मदद की। कोरोना काल में बशारत ने किसी भारतीय अखबार में एक फोटो और खबर देखी कि गुजरात के सूरत से उत्तर प्रदेश के अपने गांव के लिए निकले दो युवकों में एक हिन्दू युवक अमृत मध्यप्रदेश में सड़क किनारे बीमार है और उसका मुस्लिम दोस्त सैय्यूब उसकी मदद कर रहा है। सैय्यूब न सिर्फ अमृत को अस्पताल ले गया बल्कि उसके शव को लेकर अपने गांव पहुंचा और बाद में उसके परिवार की मदद भी की। कोरोना के आड़े समय में दोस्ती की ऐसी मिसाल बशारत पीर को छू गई और उन्होंने ‘टेकिंग अमृत होम’ नाम से एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने यह भी लिखा कि ‘‘पिछले छह वर्षों से, जब से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता संभाली है, सभ्यता, अनुग्रह और सहिष्णुता के विचारों को पूर्वाग्रह, लिंगवाद, अभद्र भाषा और महिलाओं, अल्पसंख्यकों और उदारवादियों के खिलाफ दुर्व्यवहार के विजयी प्रदर्शनों ने बदल दिया है। बदनामी की यह संस्कृति भारत के टेलीविजन नेटवर्क, सोशल मीडिया आदि पर हावी है। अमृत और सैय्यूब की तस्वीर भारत के नफरत से भरे सार्वजनिक क्षेत्र पर स्वर्ग से एक हल्की बारिश की तरह आई।’’
‘होमबाउंड’ की कहानी बशारत पीर के उसी लेख को आधार बना कर रची गई है। दो घंटे की इस फिल्म में कोरोना वाला समय 80 मिनट के बाद आता है। उससे पहले एक दलित युवक चंदन और एक मुस्लिम युवक शोएब की बैकस्टोरी तैयार की गई है जिसमें इन दोनों की दोस्ती, संघर्ष, अभावों और इन पर व इनके परिवारों पर समाज के दूसरे लोगों द्वारा किए जा रहे अत्याचार, प्रताड़ना और भेदभाव को दिखाया गया है। फिल्म में इनका गांव किसी काल्पनिक ‘चिराग प्रदेश’ में बताया गया है। हालांकि वहां की भाषा, रहन-सहन आदि उत्तर प्रदेश सरीखा है।
‘होमबाउंड’ (इस शब्द का अर्थ कितने दर्शकों को पता होगा…?) दिखाती है कि इस प्रदेश में दलितों व मुस्लिमों के प्रति बाकी लोगों का बर्ताव बेहद रूखा और भेदभाव से भरा है। दलित परिवार को उनकी जाति के चलते कदम-कदम पर अपमानित किया जाता है। चंदन आरक्षित वर्ग से होने के बाद भी हर बार सामान्य वर्ग से परीक्षा देता है ताकि ‘सीना चौड़ा कर के’ घूम सके। शोएब का पिता उसे बार-बार दुबई जाकर काम करने की सलाह देता है ताकि उसे यहां ‘रोज़-रोज़ ज़लील’ न होना पड़े। उसका परिचित एक आई.पी.एस. अफसर भी उसे दुबई जाने की सलाह देता है क्योंकि वहां के लोग उससे यह तो नहीं पूछेंगे कि ‘क्या आप आलू-गोभी भी हलाल करके खाते हैं?’ ऑफिस में हिन्दू अफसर उसके हाथ से पानी की बोतल नहीं लेता है। पाकिस्तान से होने वाले क्रिकेट मैच को देखते समय उसे अपमानित किया जाता है। प्रदेश में ज़बर्दस्त बेरोज़गारी है, अव्यवस्था है यानी जीना मुहाल है। इसलिए ये दोनों गुजरात के सूरत शहर की एक कपड़ा मिल में काम करने के लिए जाते हैं। कोरोना में लॉकडाउन लग जाने के बाद गुजरात की पुलिस भी शोएब का नाम सुन कर उसे डंडे लगाती है। वहां से अपने गांव लौटते समय इनके साथ वही होता है जो असल में अमृत और सैय्यूब के साथ हुआ था।
‘होमबाउंड’ जिस तरह की कहानी कहना चाहती है, इसके लेखकों बशारत पीर, नीरज घेवान और सुमित रॉय ने बड़ी मेहनत से उसके ताने-बाने बुने हैं। यही कारण है कि शुरू से अंत तक यह अपनी पटरी, अपनी टोन नहीं छोड़ती। नीरज घेवान ने इसकी पटकथा को विभिन्न किरदारों और घटनाओं द्वारा चलायमान बनाए रखा है। इसीलिए यह बीच-बीच में सुस्त (बोर) भले होती हो, भटकती नहीं है। नीरज, वरुण ग्रोवर और श्रीधर दुबे के संवाद प्रभावशाली हैं और किरदारों के अभावों, संघर्ष, आकांक्षाओं को कायदे से बयान करते हैं। ‘होमबाउंड’ शीर्षक इन दो किरदारों के घर की ओर लौटने से अधिक अपनी पहचान, अपने अधिकार को पाने की यात्रा के लिए इस्तेमाल किया गया है।
नीरज घेवान का निर्देशन हमेशा की तरह प्रभावी रहा है। उन्हें दृश्यों से असर छोड़ना और अपने कलाकारों को पात्रों में तब्दील करना बखूबी आता है। कलाकारों ने अपनी तरफ से कोई कसर छोड़ी भी नहीं है। ईशान खट्टर और विशाल जेठवा ने शोएब और चंदन के किरदारों की पीड़ा, बेबसी, क्रोध, जोश, सादगी, जुनून जैसे भावों को जम कर पकड़ा है। जाह्न्वी कपूर कुछ ही सीन में आने के बावजूद याद रह जाती हैं। बाकी के तमाम कलाकारों-पंकज दुबे, हर्षिका परमार, शालिनी वत्स, सुदीप्ता सक्सेना आदि ने सचमुच बहुत ही प्रभावी अभिनय किया है। अमित त्रिवेदी के संगीत में वरुण ग्रोवर के लिख गीत फिल्म के मूड में घुलमिल गए हैं। फिल्म के बाकी तकनीकी पक्ष भी शानदार हैं। बैकग्राउंड म्यूज़िक प्रभावी है, लोकेशन विश्वसनीय हैं और प्रतीक वत्स का कैमरा आपको कोई फिल्म नहीं बल्कि खिड़की के उस तरफ की दुनिया दिखाता है।
ऑस्कर के लिए भेजी गई ‘होमबाउंड’ के साथ वहां क्या होगा, यह तो वक्त बताएगा लेकिन समाज से प्रताड़ित होते एक दलित और एक मुस्लिम युवक की कहानी पर बनी इस फिल्म को भारतीय सिनेमा में हमेशा के लिए एक सम्मानित स्थान मिल गया है, यह तय है।
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Release Date-26 September, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)
Wakaai jabardast review aur Unique name on the Unique Subject. Appreciable to Reviewer and all the Artist wrote a appreciable review and did fantastic and memorable acting.
Good Luck for Oscar.