-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘‘ऊंची जात की अमीर लड़की। नीची जात का गरीब लड़का। आकर्षित हुए, पहले दोस्ती, फिर प्यार कर बैठे। घर वाले आड़े आए तो दोनों भाग गए। जिंदगी की कड़वाहट को करीब से देखा, सहा और धीरे-धीरे सब पटरी पर आ गया। लेकिन…!’’ यह कहानी थी 2018 में आई ‘धड़क’ की जो मराठी की ‘सैराट’ का रीमेक थी। लेकिन वह रीमेक भी ईमानदार नहीं था क्योंकि ‘धड़क’ बड़ी ही आसानी से अमीर-गरीब या ऊंच-नीच वाले विषय पर ठोस बात कह सकती थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं था और वह फिल्म एक ऐसा आम, साधारण प्रॉडक्ट ही बन कर रह गई थी।
(रिव्यू-‘धड़क’ न तो ‘सैराट’ है न ‘झिंगाट’)
‘धड़क 2’ भी रीमेक है। इस बार 2018 में आई निर्माता पा. रंजीत की एक तमिल फिल्म को चुना गया है। पा. रंजीत अपनी फिल्मों में दलित विमर्श को उठाने के लिए जाने जाते हैं। यह फिल्म भी वही करने की ‘कोशिश’ करती है। लेकिन यह कोशिश सतही है और उथली भी क्योंकि इसमें ‘विमर्श’ की बजाय विचारों की जबरन थोपा-थोपी ज़्यादा दिखाई गई है।
एक लॉ कॉलेज में एक ‘नीची जाति’ के लड़के नीलेश का ‘मुफ्त की सीट’ पर एडमिशन हुआ है। वैसे कानूनी तौर पर तो आरक्षण 15 प्रतिशत है लेकिन क्लास में वह अकेला दलित है। और शायद पहली बार लोगों ने अपने आसपास किसी दलित को देखा है इसलिए उसके आते ही सारे टीचर, छात्र उसे प्रताड़ित करने में लग जाते हैं। कॉलेज में उसके अलावा सिर्फ एक और दलित है जो राजनीति और धरने में उलझा रहता है जबकि सारे ‘ऊंची जाति’ वाले बड़े ही शरीफ, पढ़ाकू किस्म के लोग हैं। अब यह लड़का दलित है तो गरीब भी होगा और भीम नगर में ही रहेगा क्योंकि दलित लोग तो कभी अमीर होते ही नहीं हैं। ब्राह्मण (और अमीर) परिवार की, महंगी कॉलोनी में रहने वाली लड़की विधि को वह अच्छा लगने लगता है। क्यों…? भई, कहानी तो ऐसे ही बनेगी न। उसी क्लास में पढ़ने वाले विधि के चचेरे भाई को इन दोनों की दोस्ती खटक जाती है। गोया कि विधि अगर किसी ब्राह्मण लड़के से पट जाती तो चचेरा भाई खुद रोज़ाना विधि को उन खंडहरों तक छोड़ कर आता कि जा, कर ले अपने ब्वॉय फ्रैंड से किस्स-विस्स। अब इस ‘खटकन’ को फिल्म वालों ने ‘जाति भेद’ का नाम दे दिया है तो देखिए इसे और च्च…च्च…च्च करते हुए सोचिए कि कितना जुलुम हो रहा है।
दरअसल यह पूरी फिल्म एक ही रंग का चश्मा पहन कर लिखी और बनाई गई है। फिल्म बताती है कि सारे के सारे दलितों पर सदियों से हर जगह अत्याचार हो रहा है जो अभी तक जारी है। सारे के सारे दलित अभी भी गरीब है, वंचित हैं और अनपढ़ हैं। कोई आगे बढ़ना भी चाहता है तो उसके रास्ते में रोड़े अटकाए जाते हैं। हालांकि हमारे समाज में जाति के नाम पर होने वाले भेदभाव से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन यह फिल्म जिस तरह से इसे दिखाती है, वह सतही, खोखला और नकली लगता है। और सिर्फ यही नहीं, यह फिल्म ‘ऊंची जाति’ के घरों में औरतों को काठ की गुड़िया दिखाती है, पितृसत्ता का वर्चस्व दिखाती है, मुस्लिम-दलित-ईसाई को एक पक्ष में दिखाती है। और भी न जाने क्या-क्या यह फिल्म दिखाती है, बताती है, बताना चाहती है लेकिन इसे लिखने-बनाने वाले भूल जाते हैं कि समाज में जाति भेद से कहीं ऊपर आर्थिक भेद होता है। यदि इस फिल्म का दलित नायक अमीर और ब्राह्मण कन्या झुग्गी बस्ती की होती तो…? छोड़िए, इस बात का जवाब इस फिल्म को बनाने वाले नहीं देंगे, उनके ‘समीकरण’ बिगड़ जाएंगे। पूरी फिल्म में नीले रंग, नीले दुपट्टे, नीली दीवारों, यहां तक कि हीरो के नाम ‘नीलेश’ से जो एजेंडा परोसने की कोशिश की गई है, वह साफ दिखता है। इसके अलावा फिल्म में एक कातिल वाला समानांतर ऐंगल तो बेहद बचकाना है।
शाज़िया इकबाल का निर्देशन साधारण है। वैसे भी किसी निर्देशक की असल प्रतिभा ओरिजनल फिल्म से आंकी जानी चाहिए, रीमेक से नहीं। फिल्म काफी लंबी है, बहुत जगह बहुत बोर करती है। सिद्धांत चतुर्वेदी का अभिनय लाजवाब रहा है। तृप्ति डिमरी का हर बात पर खें-खें करना नहीं जंचता। ज़ाकिर हुसैन, विपिन शर्मा, हरीश खन्ना, सौरभ सचदेवा जैसे कलाकार प्रभावी काम करते हैं। गाने-वाने बहुत हल्के हैं। हल्की तो यह पूरी फिल्म ही है। दिक्कत यही है कि ‘नीला चश्मा’ लगा कर देखने से यह फिल्म प्रभावित करने लगती है। न्यूट्रल हो सकें तो ही समझ में आता है कि यह फिल्म कितनी हल्की और साधारण है। लेकिन आज के समय में न्यूट्रल होना कौन चाहता है…?
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-1 August, 2025 in theaters
(दीपक दुआ राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के साथ–साथ विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, वेब–पोर्टल, रेडियो, टी.वी. आदि पर सक्रिय दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य भी हैं।)