-दीपक दुआ... (Featured in IMDb Critics Reviews)
‘‘शहर बनारस के दक्खिनी छोर पर गंगा किनारे बसा ऐतिहासिक मुहल्ला अस्सी। अस्सी चौराहे पर भीड़-भाड़ वाली चाय की एक दुकान। इस दुकान में रात-दिन बहसों में उलझते, लड़ते-झगड़ते गाली-गलौज करते कुछ स्वनामधन्य अखाड़िए बैठकबाज। इसी मुहल्ले और दुकान का लाइव शो है यह कृति।’’
कहने को इसमें बाकायदा कुछ कहानियां हैं। लेकिन असल में यह फिल्म इन कहानियों के बरअक्स हमारे आसपास की दुनिया में आ रहे उन बदलावों पर तीखी-कड़वी टिप्पणियां करती है जो वैश्वीकरण और बाजारीकरण के चलते हर तरफ अपनी पैठ बना चुके हैं। 1988 के वक्त से शुरू करके अगले कुछ सालों की देश-समाज की तस्वीर दिखाती इस फिल्म में उस दौर की राजनीति, समाज, संस्कृति आदि में आ रहे खोखलेपन पर गहरी बातें की गई हैं। द्विवेदी जी ने कहानी की मूल आत्मा के साथ न्याय करते हुए इसे बखूबी साधा भी है। फिल्म के संवाद नुकीले और ताकतवर हैं। लेकिन इसे एक फिल्म के लायक स्क्रिप्ट में तब्दील करने में वह चूके हैं और बुरी तरह से चूके हैं। उन्हीं की ‘चाणक्य’ या ‘पिंजर’ जैसी कृतियों से काफी कमज़ोर है यह फिल्म। 1988 के वक्त में मोबाइल फोन का ज़िक्र और डिज़िटल कैमरे का इस्तेमाल...!
शहर बनारस को बखूबी दिखाती है यह फिल्म। सनी देओल को एक नई रंगत में देखा जा सकता है। साक्षी तंवर, सीमा आज़मी,
सौरभ शुक्ला, मिथिलेश चतुर्वेदी, राजेंद्र गुप्ता,
मुकेश तिवारी जैसे तमाम मंझे हुए कलाकारों का अभिनय असरदार रहा है। रवि किशन मजमा लूट ले जाते हैं। पार्श्व-संगीत प्रभावी है।
इस उपन्यास में गालियों की भरमार थी। लेकिन फिल्म एक अलग माध्यम है। इसकी अलहदा जु़बां,
जुदा अंदाज़ होता है। इस माध्यम की ज़रूरत पहचान कर अगर इसमें गालियों से बचा जाता तो यह ज़्यादा प्रभावी और ज़्यादा पहुंच वाली हो सकती थी। ‘काशी का अस्सी’ हर किसी को नहीं भाता। तो यह फिल्म भी हर किसी को कैसे पसंद आ सकती है। फिर भी,
भदेस चीज़ें पसंद करने वालों को यह भाएगी।
अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ की शुरूआत इन्हीं पंक्तियों से होती है। खासे चर्चित,
विवादित और बदनाम हुए इस उपन्यास में उपन्यास या कहानी जैसा कुछ परंपरागत नहीं था बल्कि काशीनाथ सिंह ने इसे किसी अलग ही विधा में रचा था। इसी उपन्यास के पांच हिस्सों में से सिर्फ एक ‘पांड़े कौन कुमति तोहें लागी’
पर आधारित इस फिल्म में भी फिल्म जैसा कुछ परंपरागत नहीं है। कुछ अलग ही रचा है डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने इसमें।


अपनी रेटिंग-ढाई स्टार
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