-दीपक दुआ...
शीर्षक किरदार में डैनी डेंज़ोंग्पा अपने अभिनय से गहरा असर छोड़ते हैं। मिनी बनीं गीतांजलि थापा उम्दा अदाकारा हैं जो बार-बार बताती हैं कि उन्हें किसी भी किरदार में गहरे पैठने में ही मज़ा आता है। आदिल हुसैन, बृजेंद्र काला, टिस्का चोपड़ा जैसे तमाम दूसरे कलाकार जानदार रहे हैं। यहां तक कि हवाई दुर्घटना में मारे गए लोगों की लिस्ट पढ़ने वाले एक सीन में आई अभिनेत्री भी अपनी नम आवाज़ से दिल छू लेती है। साऊंड-रिकाॅर्डिंग फिल्म के असर को गाढ़ा बनाती है। गुलज़ार का लिखा और संदेश शांडिल्य के संगीत में बना इसका एकमात्र गाना फिल्म की रूह बन जाता है। डायरेक्टर देब मेढेकर अपनी इस पहली ही फिल्म में ऊंचाइयां छूते नज़र आते हैं। निर्देशक की पहली फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए वह बड़े दावेदार हो सकते हैं। इस फिल्म को भारत की तरफ से ऑस्कर के लिए भी भेजे जाने पर भी विचार होना चाहिए।
टैगोर की अमर कहानी ‘काबुलीवाला’ बताती है कि अफगानिस्तान से आया पठान (काबुलीवाला) कलकत्ते की गलियों में मेवे बेचता है, पैसे उधार देता है, छोटी-सी मिनी में अपनी बेटी की झलक देखता है, अपने मुल्क लौटना चाहता है, किसी को चाकू मार कर जेल चला जाता है, लौटता है तो पाता है कि मिनी की शादी हो रही है।
‘बायोस्कोपवाला’ उसी कहानी को नई नज़र से देखती है, नए सिरे से उठाती है और एक नया अंत दिखाती है। पठान को अफगानिस्तान से कोलकाता क्यों आना पड़ा? मिनी में उसे अपनी बेटी क्यों दिखाई देती है? अफगानिस्तान में वह क्या करता था? यहां वह मेवे बेचने की बजाय गलियों में घूम-घूम कर छोटे-से डिब्बे में बायोस्कोप क्यों दिखाता है। उसके जेल जाने के पीछे की सही वजह क्या थी? अब उसकी कैसी हालत है? इतने बरसों बाद मिनी उसे किस नज़र से देखती है? पहचानती भी है या नहीं? पहचान जाती है तो वह उसके क्या करती है? और मिनी जो करती है, वह सच जब सामने आता है तो यकीन मानिए आंखें नम हो उठती हैं।
‘काबुलीवाला’ की कहानी को 1990 से लेकर आज के समय में इस तरह से फैलाने की कल्पना करने के लिए सुनील दोशी, देब मेढेकर और राधिका आनंद तालियों के हकदार हो जाते हैं। मिनी के नजरिए से कही गई खूबसूरत कहानी को इस उम्दा तरीके से स्क्रिप्ट में ढाला गया है कि इसमें एक नॉस्टेल्जिक फील के साथ-साथ इमोशनल और थ्रिलर का टच बराबर बना रहता है। बायोस्कोपवाले के अतीत में झांकते हुए मिनी असल में अपना एक सफर पूरा करती है और जब वह अपनी मंज़िल पर पहुंचती है तो लगता है कि उसके साथ-साथ न सिर्फ यह कहानी बल्कि टैगोर और हम दर्शक भी किनारे आ लगे हैं।

यह फिल्म असल में अहसान उतारने की कहानी ज़्यादा लगती है। बायोस्कोपवाले का, मिनी के पिता का, हिन्दी सिनेमा का, टैगोर की कहानी का...। सब चुकाती है यह।
अपनी रेटिंग-चार स्टार
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