-दीपक दुआ...
करीब चार साल पहले जब ‘जॉली एल.एल.बी.’ आई थी तो अपन उससे कुछ निराश थे और लिखा था कि जब आप के हाथ में हथौड़ा हो तो चोट भी जोरदार करनी चाहिए। पता नहीं, निर्देशक सुभाष कपूर ने हम जैसों की सुनी या अपने अंदर की, लेकिन इस बार वह सचमुच जोरदार ढंग से सामने आए हैं और इस तरह से अपनी बात कहते हैं कि इस फिल्म को देखते हुए आप मुस्कुराते हैं, हंसते हैं, तालियां पीटते हैं, वाह-वाह करते हैं और अंत में यह आपके अंदर उस उम्मीद को एक बार फिर जगाती है कि अभी भी हमारे चारों तरफ सब कुछ मरा नहीं है।
अक्षय कुमार पूरी तरह से फॉर्म में हैं और जब, जैसी जरूरत पड़ी तब आगे बढ़ कर या अंडर-प्ले करके असर छोड़ते हैं। तेज-तर्रार वकील के किरदार में अन्नू कपूर ने जम कर काम किया। चंद सीन में आईं सयानी गुप्ता हों या विनोद नागपाल, राजीव गुप्ता, इनामुल हक, मानव कौल, कुमुद मिश्रा, संजय मिश्रा, ब्रिजेंद्र काला जैसे अन्य कलाकार, हर किसी को अपने किरदार में फिट करती चलती है यह फिल्म। हां, जॉली की बीवी के रोल में हुमा कुरैशी को कुछ और दमदार सीन मिलते तो बढ़िया रहता। लेकिन पिछली वाली फिल्म की तरह इस बार भी मजमा लूटने का काम सौरभ शुक्ला ही कर गए। अपनी बेटी की शादी की तैयारियों में मसरूफ, मगर अपने काम को डूब कर करते जज की भूमिका में सौरभ अपनी हर अदा और हर संवाद-अदायगी से बताते हैं कि क्यों वह सिर्फ एक एक्टर ही नहीं, एक्टिंग के गुरु भी हैं। सौरभ का ही किरदार है जो इस फिल्म को पिछली वाली फिल्म से जोड़ता है। म्यूजिक ठीक-ठाक है।

कहानी वही पुरानी है। वकालत का अपना धंधा जमाने की जुगत में हर सही-गलत काम को करने को तैयार जॉली को जब अपने एक गुनाह का अहसास होता है तो पश्चाताप करने के लिए वह सच तलाशने और इंसाफ दिलाने के लिए निकल पड़ता है। जाहिर है कि सच का रास्ता कठिन होता है लेकिन अपनी फिल्में तो हमेशा से बताती और दिखाती रही हैं कि सच और साहस है जिसके मन में, अंत में जीत उसी की रहे।
पहले ही सीन से सुभाष कपूर जता देते हैं कि इस बार वह हाथ में गेवल लेकर किसी जज की तरह सिर्फ ‘ऑर्डर-ऑर्डर’
नहीं करेंगे बल्कि जहां जरूरत होगी, वहां उसे फेंक कर भी मारेंगे। स्कूली इम्तिहानों में नकल करवाने के ठेके, मृत आदमी का केस, प्रोमोशन और कमाई के लालच में पुलिस वालों के गलत काम, केस लड़ने के लिए सिल्वर, गोल्ड और प्लेटिनम पैकेज ऑफर करने, अदालतों के बदबदाते माहौल या पेडिंग पड़े करोड़ों मुकदमों के जिक्र जैसे सीन भले ही हल्के से आकर निकल जाते हों लेकिन असल में यह हमारे आसपास के समाज और सिस्टम की उन खामियों और सूराखों की बात करते हैं जिन्हें हमने इस अंदाज में लगभग स्वीकार कर लिया है कि यह तो ऐसे ही होगा और हमें इनके साथ ही चलना पड़ेगा। मगर यह फिल्म बताती है कि अगर ईमानदारी से जुट कर काम किया जाए तो फिर यही समाज, यही सिस्टम सच और सही का साथ देने के लिए भी उठ खड़ा होता है।
फिल्म की पूरी कहानी लखनऊ की है और हीरो जॉली कानपुर से वहां आया है। लखनऊ की अवधी का इस्तेमाल भले ही ज्यादा न दिखा हो मगर कनपुरिया और यू.पी. के फ्लेवर वाली जुबान पूरी फिल्म में सुनाई पड़ती है और कई जगह स्थानीय शब्दों का इस्तेमाल इसकी रंगत बढ़ाते हैं। हालांकि फिल्म में काफी कुछ ‘फिल्मी’ भी है। लेकिन इस की रफ्तार और इसके कंटेंट की मजबूती आपको उसे अनदेखा करने पर मजबूर करती है। कुछ एक जगह लगता है कि यह क्या ड्रामा चल रहा है, लेकिन यह ड्रामा ही इस फिल्म को आगे ले जाता है वरना अपनी फिल्मों में कोर्ट-रूम सीन अक्सर या तो नीरस हो जाते हैं या फिर बोझिल। फिल्म के संवाद इसकी जान हैं। मुंह से कब अपने-आप वाह निकल जाए और कब हाथ तालियां पीटने लगें, पता ही नहीं चलता। कुछ एक सीन आपको पिघलाते भी हैं

इस कहानी में नयापन भले न हो, तीखापन जरूर है और यह तीखापन ही ऐसे विषयों को दिल-दिमाग के भीतर तक ले जाता है। असल में तो यह फिल्म एक ऐसा करारा कनपुरिया कनटाप है जिसे निर्देशक ने हमारे सिस्टम की खामियों के कान के नीचे रख कर दिया है। अब भी अगर कोई सुधरना और सुधारना न चाहे तो मर्जी उसकी।
अपनी रेटिंग-4 स्टार
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