बच्चों की किसी फिल्म के साथ अमोल गुप्ते का नाम जुड़ा हो तो लगता है कि कुछ हट के और उम्दा देखने को मिलेगा। ताउम्र बच्चों के लिए ही काम करते रहे अमोल की ‘तारे जमीन पर’ से लेकर ‘स्टेनली का डब्बा’ और ‘हवा हवाई’ जैसी फिल्मों में बाल-मनोविज्ञान और बालसुलभ बातें थीं। कोशिश इस बार भी उनकी नेक रही है लेकिन इस कोशिश को कारगुजारी में बदलते समय अमोल इस बार रपट गए हैं, बुरी तरह से।
तीसरी क्लास में पढ़ने वाला सनी (खुशमीत गिल) सूंघ नहीं पाता है। लेकिन एक दिन चमत्कार होता है और वह दो-दो किलोमीटर तक और दो-दो दिन पुरानी बू भी सूंघने लगता है। अपने इसी नए हुनर से वह एक कार-चोर को पकड़ने निकल पड़ता है।
दरअसल इस बार अमोल की कहानी में ही छेद हैं। सनी के सूंघने की क्षमता एक चमत्कार से वापस आती है, किसी इंसानी कोशिश से नहीं। लेकिन इसके बाद उसे इस सुपरपाॅवर का भरपूर इस्तेमाल करते नहीं दिखाया गया। कार-चोर को पकड़ने की उसकी कोशिशें बचकानी और अतार्किक लगती हैं। अमोल ने हर बार की तरह इस फिल्म में भी कई दिलचस्प किरदार गढ़े लेकिन वे सारे के सारे प्यारे नहीं लगते। अपने पति को पीटने वाली पुलिस अफसर को देख खीज होती है।
खुशमीत गिल का काम कमाल का रहा है। हालांकि वह तीसरी क्लास से बड़ा लगता है। बाकी सब ने भी बढ़िया साथ निभाया। गीत-संगीत साधारण रहा है। अमोल का निर्देशन भी। कहानी में दम होता, कुछ और कल्पनाएं झोंकी जातीं तो यह फिल्म सिर्फ सूंघने की बजाय चखने, मन भरने का काम भी करती।