• Home
  • Film Review
  • Book Review
  • Yatra
  • Yaden
  • Vividh
  • About Us
CineYatra
Advertisement
  • होम
  • फ़िल्म रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
  • होम
  • फ़िल्म रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
No Result
View All Result
CineYatra
No Result
View All Result
ADVERTISEMENT
Home फ़िल्म रिव्यू

रिव्यू-अच्छी ‘रे’ सच्ची ‘रे’ पक्की ‘रे’ कच्ची ‘रे’

CineYatra by CineYatra
2021/07/31
in फ़िल्म रिव्यू
0
रिव्यू-अच्छी ‘रे’ सच्ची ‘रे’ पक्की ‘रे’ कच्ची ‘रे’
Share on FacebookShare on TwitterShare on Whatsapp

ओ.टी.टी. पर इधर एक अच्छी चीज़ उभर कर आई है जिसका नाम है-एंथोलॉजी। यानी लगभग एक ही जैसे विषय पर कही गईं अलग-अलग कहानियों को एक जगह दिखाना। खासतौर से नेटफ्लिक्स पर ऐसी कहानियां काफी आ रही हैं। इधर आई ‘रे’ भी एक एंथोलॉजी है जिसमें महान फिल्मकार सत्यजित रे की लिखी चार कहानियों पर बनी चार फिल्में हैं। रे सिर्फ फिल्मकार ही नहीं, लेखक, गीतकार, संगीतकार, चित्रकार, पत्रकार और भी न जाने क्या-क्या थे। इन चारों कहानियों की खासियत यह है कि इनके केंद्र में मुख्यतः पुरुष पात्र हैं जिनकी सोच, मनोदशा, आदतों, बातों आदि के ज़रिए ये कहानियां कुछ कहती हैं। क्या कहती हैं, आइए देखें।

पहली फिल्म ‘फॉरगेट मी नॉट’ रे की कहानी ‘बिपिन चौधरीर स्मृतिभ्रम’ पर आधारित है। कभी कुछ न भूलने वाला एक यंग, कामयाब बिज़नेसमैन अचानक से बातें भूलने लगता है। क्या है यह? कोई बीमारी या मन का वहम? या फिर कुछ और? कहानी को बड़े ही

कायदे से उलझाया और सुलझाया गया है। अंत आते-आते यह चुभने लगती है और यह चुभन ही इसकी सफलता है। ‘बेगम जान’बना चुके श्रीजित मुखर्जी ने इसे बहुत ही कायदे से फिल्माया है। दृश्यों के विस्तार के अलावा उन्हें समेटते हुए भी संवेदना बरती गई है। अली फज़ल तो उम्दा रहे ही हैं, श्वेता बासु प्रसाद, अनिंदिता बोस जैसे बाकी कलाकार भी जमे हैं। 65 मिनट की अच्छी फिल्म है यह।

दूसरी फिल्म ‘बहरूपिया’ रे की कहानी ‘बहुरूपी’ पर आधारित है। इसे भी श्रीजित मुखर्जी ने ही निर्देशित किया है। 53 मिनट की इस फिल्म का नायक इंद्राशीष नौकरी के साथ

-साथ एक मेकअप आर्टिस्ट भी है। मरते समय दादी उसे बहुरूपिया बनने की कला पर एक किताब दे गई है। अब वह रूप बदल कर वो सब कर रहा है जो वह असल में नहीं कर पाता। मगर क्या तन का रूप बदलने से मन का भी रूप बदल जाता है? इंसानी मन की दबी-ढकी कुंठाओं, इच्छाओं को बेहद प्रभावी चित्रण मिलता है इस फिल्म में। के.के. मैनन ने जितना अच्छा काम किया है उतने ही बेहतर पीर बाबा के किरदार में दिब्येंदु भट्टाचार्य भी रहे हैं। बिदिता बाग, राजेश शर्मा और बाकी कलाकारों का भी भरपूर असर रहा। हर इंसान के अंदर के दंभ की सच्ची कहानी दिखाती है यह।

‘इश्किया’, ‘उड़ता पंजाब’ जैसी कई फिल्में बना चुके अभिषेक चौबे ने रे की

कहानी ‘बारिन भौमिकेर ब्यारोम’ पर ‘हंगामा है क्यों बरपा’ बनाई है। ट्रेन में दो शख्स मिले हैं-एक गायक, एक पहलवान। दोनों को लगता है कि वह पहले भी मिल चुके हैं। गायक को याद है कि कहां और कैसे मिले थे और जब पहलवान को याद आता है तो कहानी का रुख ही पलट जाता है। बाकी कहानियों की तरह इसमें भी इंसानी मन की उलझनों और कुंठाओं को सलीके से उबारा गया है। फिर मनोज वाजपेयी और गजराज राव की बेमिसाल एक्टिंग इसे अलग ही मकाम पर ले जाती है। मनोज पाहवा भी आकर मजमा लूटते हैं इस 54 मिनट की फिल्म में जो अपने विषय और उसकी प्रस्तुति के चलते काफी पक्की (मैच्योर) लगती है।

इस सीरिज़ की आखिरी फिल्म है ‘स्पॉटलाइट’ जो रे की इसी नाम की कहानी पर बनी है। 63 मिनट की यह फिल्म ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ बना चुके वासन बाला ने डायरेक्ट की है। एक हीरो होटल में रहने आया है। उस हीरो की एक खास लुक के लोग दीवाने हैं। लेकिन उसी होटल मेंएक धर्मगुरु ‘दीदी’ के आने के बाद सब उलटा-पुलटा होने लगता है। इस कहानी का प्रवाह धीमा है और इसकी पटकथा उलझी हुई। सीरिज़ की सबसे कमज़ोर इस

कहानी में हीरो के रोल में एक ‘नॉन-एक्टर’ चाहिए था और अनिल कपूर के बेटे हर्षवर्धन कपूर इस रोल में एकदम ‘फिट’ रहे हैं। सिर्फ लुक है उनके पास, एक्टिंग नहीं। वासन भी इसे रोचक नहीं बना पाए। चंदन रॉय सान्याल और राधिका मदान का काम ज़रूर देखने लायक रहा। सारी कहानियों में सबसे कच्ची यही वाली रही।

सत्यजित रे की कहानियों को जिस तरह से पटकथा लेखकों ने आज के दौर की सिनेमाई ज़रूरत के मुताबिक बदला है, उसकी तारीफ होनी चाहिए। निर्देशकों ने भी इन्हें दम भर साधने की कोशिश की है। इस काम में ये लोग कहीं अच्छी, कहीं सच्ची, कहीं पक्की तो कहीं कच्ची चीज़ें परोस गए हैं। आप अपनी पसंद के मुताबिक इन्हें देख-छोड़, पसंद-नापसंद कर सकते हैं।

Tags: अच्छी ‘रे’कच्ची ‘रे’पक्की ‘रे’सच्ची ‘रे’
ADVERTISEMENT
Previous Post

बुक रिव्यू-हॉलीवुड की किसी फिल्म सरीखी ‘पानी की दुनिया’

Next Post

वेब रिव्यू-‘चौरासी’ के सत्य की खोज में लगा ‘ग्रहण’

Related Posts

रिव्यू-‘जयेशभाई जोरदार’ बोरदार शोरदार
फ़िल्म रिव्यू

रिव्यू-‘जयेशभाई जोरदार’ बोरदार शोरदार

रिव्यू-अच्छे से बनी-बुनी है ‘जर्सी’
फ़िल्म रिव्यू

रिव्यू-अच्छे से बनी-बुनी है ‘जर्सी’

रिव्यू-बड़ी ही ‘दबंग’ फिल्म है ‘के.जी.एफ.-चैप्टर 2’
फ़िल्म रिव्यू

रिव्यू-बड़ी ही ‘दबंग’ फिल्म है ‘के.जी.एफ.-चैप्टर 2’

वेब रिव्यू-क्राइम, इन्वेस्टिगेशन और तंत्र-मंत्र के बीच भटकती ‘अभय’
फ़िल्म रिव्यू

वेब रिव्यू-क्राइम, इन्वेस्टिगेशन और तंत्र-मंत्र के बीच भटकती ‘अभय’

रिव्यू-सैकिंड डिवीज़न ‘दसवीं’ पास
फ़िल्म रिव्यू

रिव्यू-सैकिंड डिवीज़न ‘दसवीं’ पास

रिव्यू-मैदान न छोड़ने की सीख देता ‘कौन प्रवीण तांबे?’
फ़िल्म रिव्यू

रिव्यू-मैदान न छोड़ने की सीख देता ‘कौन प्रवीण तांबे?’

Next Post
वेब रिव्यू-‘चौरासी’ के सत्य की खोज में लगा ‘ग्रहण’

वेब रिव्यू-‘चौरासी’ के सत्य की खोज में लगा ‘ग्रहण’

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

  • होम
  • फ़िल्म रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में
संपर्क – [email protected]

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment.

No Result
View All Result
  • होम
  • फ़िल्म रिव्यू
  • बुक-रिव्यू
  • यात्रा
  • यादें
  • विविध
  • हमारे बारे में

© 2021 CineYatra - Design & Developed By Beat of Life Entertainment.