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Home फ़िल्म रिव्यू

रिव्यू-खोखली फिल्म है ‘शादीस्थान’

CineYatra by CineYatra
2021/07/31
in फ़िल्म रिव्यू
0
रिव्यू-खोखली फिल्म है ‘शादीस्थान’
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मुंबई से अजमेर एक शादी में जा रहे परिवार की फ्लाइट छूट गई तो मजबूरन उन्हें एक म्यूज़िक बैंड के साथ उनकी बस में जाना पड़ा। यह परिवार अपनी इकलौती 18 बरस की लड़की की जबरन शादी करने पर तुला है जबकि लड़की राज़ी नहीं है। उधर इस बैंड की लड़की आज़ाद ख्याल है, सिगरेट-शराब पीती है, अपनी मर्ज़ी से जीती है। वह लड़की की मां को समझाती है कि इतनी जल्दी क्या है बेटी को खूंटे से बांधने की। मां-बाप आखिर मान भी जाते हैं, लेकिन कैसे? अपने कलेवर में यह फिल्म एक ‘रोड-मूवी’ होने का अहसास देती है। एक ऐसी फिल्म जिसमें एक सफर होता है, कुछ हमसफर होते हैं, उनकी एक सोच और कुछ हालात होते हैं, रास्ते में कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं, कुछ ऐसी बातें होती हैं जिससे उनकी सोच बदलती है और इस बदली हुई सोच से वे अपने हालात बदलने लगते हैं। ‘जब वी मैट’, ‘कारवां’, ‘करीब करीब सिंगल’, ‘पीकू’, ‘ज़िंदगी ना मिलेगी दोबारा’, ‘चलो दिल्ली’ जैसी फिल्मों को आप इस खांचे में रख सकते हैं। लेकिन यह भी सच है कि इस किस्म की फिल्म बनाना आसान नहीं होता। एक कसी हुई कहानी के साथ-साथ एक सुलझी हुई सोच का होना तो ऐसी फिल्मों में ज़रूरी होता ही है, लगातार घटती दिलचस्प घटनाएं और लगातार मिलते रोचक किरदार ही इस तरह की फिल्म को खड़ा कर पाते हैं।मुंबई में रह रहे परिवार को 18 की उम्र में इकलौती बेटी ब्याहनी ही क्यों हैं, फिल्म यह नहीं बता पाती। फिल्म बार-बार ‘समाज क्या कहेगा’, ‘परिवार वाले क्या कहेंगे’ कहती है। लेकिन इस बारे में कुछ पुख्ता दिखा नहीं पाती। दरअसल इस फिल्म की दिक्कत ही यही है कि यह ‘कहती’ तो बहुत कुछ है लेकिन उस ‘कहने’ के समर्थन में कुछ भी ‘दिखा’ नहीं पाती। कमी लेखन के स्तर पर ज़्यादा है। लेखक अपने मन की सोच को कायदे से कागज़ पर उतार ही नहीं पाया। अपने घर-परिवार को ही अपना सब कुछ मान चुकी एक औरत को म्यूज़िक बैंड वाली लड़की चंद घंटों में सिर्फ ‘समझा-समझा’ कर बदलना चाहती है और यह काम भी वह कायदे से नहीं कर पा रही है। सिवाय एक संवाद ‘हम जैसी औरतें लड़ती हैं ताकि आप जैसी औरतों को अपनी दुनिया में लड़ाई न लड़नी पड़े’ को छोड़ कर यह फिल्म असल में खोखले नारीवाद को परोसने की एक उतनी ही खोखली कोशिश भर लगती है।  और यह फिल्म इन दोनों ही मोर्चों पर बुरी तरह से नाकाम रही है। राज सिंह चौधरी लेखक के साथ-साथ बतौर निर्देशक भी नाकाम रहे हैं। वह न तो घटनाएं रोचक बना पाए, न ही किरदार। मुंबई से अजमेर के रास्ते में टाइगर साहब (के.के. मैनन) आखिर इन्हें मिले ही क्यों? और उसके बाद ये लोग छलांग मार कर एक ढाबे के बाहर कैसे सोते हुए पाए गए? अजमेर में शादी वाले घर के हालात का भी निर्देशक कोई इस्तेमाल अपनी कहानी को जमाने में नहीं कर सके। और यह ‘शादीस्थान’ नाम का क्या मतलब है भाई, ज़रा यह भी समझा देते। अंत में पापा जब बदले तो उस बदलने के पीछे के कारण भी फिल्म नहीं दिखा पाती। कुल मिला कर डिज़्नी-हॉटस्टार पर आई यह फिल्म 93 मिनट की होने के बावजूद अगर बहुत लंबी, बोरिंग और चलताऊ लगती है तो सारा कसूर बतौर कप्तान इसके डायरेक्टर का ही है, कीर्ति कुल्हारी जैसे उन कलाकारों का नहीं जिन्होंने अपने काम को ईमानदारी से अंजाम दिया।

Tags: ‘शादीस्थान’
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