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Home फ़िल्म रिव्यू

तकदीर के रिसते ज़ख्म दिखाती ‘पार्टिशन 1947’

CineYatra by CineYatra
2021/05/31
in फ़िल्म रिव्यू
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एक सीन देखिए-15 अगस्त, 1947 को हर तरफ आजादी का जश्न मनाया जा रहा है। बंगाल के नोआखली की उस छत पर भी, जहां महात्मा गांधी सोए हुए हैं, एक लड़की पूछती है-क्या हम बापू को जगाएं? दूसरी कहती है-नहीं, बापू का कहना है कि जश्न की कोई वजह नहीं है।

सच पूछिए तो जिस तरह से हमारी धरती के टुकड़े करके अंग्रेजों ने हमें ‘आजादी’ दी थी और उन दिनों जिस तरह से इंसान, इंसान को मार, काट रहा था, वह जश्न का मौका था भी नहीं। मानवीय इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी के तौर पर याद किए जाने वाले हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे का दंश रह-रह कर आज भी लोगों को सालता है। ढेरों किताबों और फिल्मों में अलग-अलग नजर और नजरिए से इस त्रासदी पर बात की गई है। गुरिंदर चड्ढा की यह फिल्म 1975 में लिखी गई लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक लैपियर की किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ पर आधारित इंगलिश फिल्म ‘वाइसरायज़ हाउस’ से डब होकर हिन्दी में आई है।

आज का राष्ट्रपति भवन ही तब वाइसरॉय हाऊस कहलाता था। फिल्म आखिरी वाइसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन के भारत आने और उनके ‘माउंटबेटन प्लान’ के मुताबिक भारत को दो टुकड़ों में बांटने की कहानी को उनके, उनके परिवार और उनके वाइसरॉय हाऊस के नौकरों की नजर से देखती है। फिल्म यह भी खुलासा करती है कि पाकिस्तान पाने की जिन्ना की जिस जिद को हम अपने इतिहास की सबसे बड़ी भूल मानते हुए जिन्ना, नेहरू और माउंटबेटन को कटघरे में खड़ा करते हैं उसकी पटकथा तो असल में ब्रिटेन में बैठे चर्चिल ने काफी पहले ही लिख दी थी। असलियत में जिन्ना को पाकिस्तान नाम का लॉलीपॉप देकर ब्रिटेन एक अलग ही खेल रच रहा था। हालांकि यह फिल्म विभाजन की पीड़ा या उस दौरान हुई तबाही का खौफनाक मंजर नहीं दिखा पाती है लेकिन यह सब दिखाना शायद इस फिल्म का मकसद था भी नहीं। वाइसरॉय हाऊस के नौकरों में एक हिन्दू लड़के और एक मुस्लिम लड़की की प्रेम-कहानी के जरिए फिल्म दिलों में आई दरार और दूरियों की बात भी बखूबी करती जाती है।

डायरेक्शन, सैट्स, कैमरा और सधी हुई एक्टिंग के अलावा इस फिल्म को बंटवारे के उस ज़ख्म के लिए भी देखा जाना चाहिए जिसे तकदीर ने दोनों मुल्कों पर थोपा और जो आज सत्तर बरस बाद भी रिस रहा है… दोनों तरफ।

Tags: पार्टिशन 1947
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