किसी नेशनल पार्क में बाघ देखने जाइए तो अपने गाइड की बातों पर गौर कीजिएगा। ‘आज सुबह ही यहां बाघ दिखा था’, ‘इसी जगह रोज़ पानी पीने आता है’, ‘यह देखिए बाघ के पंजों के निशान’, ‘इसी झाड़ी के पीछे छुपा है’ जैसी बातों से ये गाइड पर्यटकों को आश्वस्त करते रहते हैं कि बाघ अभी दिखेगा, अभी दिखेगा और दर्शक पहले उत्साह में और फिर मायूसी में जंगल घूम-घाम कर लौट आता है। यह फिल्म भी कुछ ऐसी ही है जिसमें बाघ के शिकार पर गए एक शख्स और उसे शिकार पर ले जाने वाले कुछ लोगों की कहानी है।
कुणाल सिंह की कहानी पर आधारित यह फिल्म असल में इंसानी मन की दमित इच्छाओं और इंसानी तन की ज़रूरतों पर बात करती है। नेपाल सिंह को अपने बाप-दादाओं का मान रखने के लिए बाघ का शिकार करना है तो मुर्शिद और उसके साथियों को इन जैसे शिकारियों की सेवा-टहल करके अपना पेट पालना है। पूरी फिल्म में बाघ के दिखने और उसके शिकार को लेकर जो तनाव रचा गया है वह पर्दे पर महसूस होता है। फिल्म का अंत रोचक है। निर्देशक रवि बुले ने दृश्यों को खूब साधा है।
लेकिन दिक्कत यह है कि कच्चे कलाकारों को लेकर बनी इस फिल्म का कच्चापन छुप नहीं पाता। स्क्रिप्ट के स्तर पर कसावट की कमी खटकती है तो कुछ एक चीज़ें गैरज़रूरी लगती हैं। संवाद कुछ एक जगह बहुत अच्छे हैं तो बाकी जगह बेहतर हो सकते थे। कई बार तो यह भी महसूस होता है कि यदि स्क्रिप्ट को और छोटा किया जाता और कुछ नामी कलाकार लिए जाते तो इस फिल्म को एक उम्दा शॉर्ट-फिल्म में बदला जा सकता था। पलामू के जंगल में इसकी शूटिंग इसे यथार्थ रूप देती है।
आशुतोष पाठक, नरोत्तम बैन, तनीमा भट्टाचार्य, रजनीकांत सिंह, प्रिंस निरंजन व अन्य सभी कलाकारों ने अपनी सीमाओं में रह कर अच्छा काम किया है। डॉ. अनुपम ओझा का लिखा गीत ‘सैंया सिकारी सिकार पर गए…’ खासतौर से उल्लेखनीय है। ठुमरी अंग में डॉ. विजय कपूर ने इसे संगीतबद्ध किया है।
इस किस्म की कहानियों पर फिल्में बनना और उनका कहीं रिलीज़ हो पाना ही अपने-आप में सुखद है। फिलहाल यह फिल्म एयरटेल एक्सट्रीम, हंगामा डॉट कॉम और वोडाफोन ऐप पर उप