-दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
लगभग डेढ़ दशक तक तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं जयललिता की जीवन-यात्रा से भला कौन परिचित नहीं? जो परिचित नहीं, उनके लिए ही तो बनाई गई है यह फिल्म। एक स्वाभिमानी लड़की जो संघर्ष करके स्टार अभिनेत्री बनी, अभिनेता से राजनेता बने एम.जी. रामचंद्रन से अपनी नज़दीकियों के चलते वह राजनीति में आई और उनकी मृत्यु के बाद करोड़ों लोगों का प्यार पाकर उनकी राजनीतिक वारिस भी बनी।
हिन्दी वालों के लिए दक्षिण भारतीय नेताओं-अभिनेताओं की कहानियां अनसुनी, अनजानी भले होती हों लेकिन यह तो उन्हें भी पता है कि वहां के लोग जब किसी को सिर पर बिठाते हैं तो उसे देवी-देवता का दर्जा दे देते हैं। यह फिल्म दिखाती है कि एम.जी.आर. (फिल्म में एम.जे.आर.) और जयललिता (फिल्म की जया) ऐसे ही दो शख्स थे। फिल्म की शुरूआत उस (सच्ची) घटना से होती है जब जया को भरी विधानसभा में अपमानित किया गया था और उसने कसम खाई कि अब इस सभा में मुख्यमंत्री बन कर ही लौटूंगी।
अपने यहां राजनेताओं की निष्पक्ष बायोपिक बनाने का चलन नहीं है। वजह स्पष्ट है कि कुछ ‘ऐसा-वैसा’ दिखाया तो फिर फिल्म और उसे बनाने वालों की खैर नहीं। यह फिल्म भी ‘ऐसा-वैसा’ दिखाने से बचती है और इसीलिए जया का प्रशस्ति-गान करती ही दिखाई देती है। बनाने वालों ने बड़ी ही समझदारी से इसे ‘सिनेमा से सी.एम.’ तक सीमित रखा जबकि सी.एम. बनने के बाद के जयललिता के ‘कारनामे’ भी किसी से छुपे नहीं हैं।
बावजूद इसके यह एक सधी हुई कहानी पर बनी फिल्म है। विजयेंद्र प्रसाद ने अपनी स्क्रिप्ट में जया के जीवन के प्रमुख हिस्सों को कोलाज की शक्ल में पेश किया है जिसके चलते यह शुरू से ही बांध लेती है। हालांकि बहुत जगह चुस्त एडिटिंग का अभाव खलता है और लगता है कि कई सीन काफी खींच दिए गए लेकिन यह भी एक सच है कि पूरी फिल्म में एक भी सीन ऐसा नहीं है जिसे छोड़ कर आप बाहर जा सकें। रजत अरोड़ा के संवाद कहीं बहुत प्रभावी हैं तो कहीं एकदम हल्के।
ए.एल. विजय का निर्देशन असरदार है। वह दृश्यों को प्रभावी ढंग से गढ़ पाते हैं और कलाकारों से उनका बेहतरीन काम भी निकलवा पाते हैं। सच यह भी है कि अदाकारी ही इस फिल्म का सबसे मज़बूत पक्ष है। कंगना रानौत ने एक बार फिर अपने अभिनय का दम दिखाया है। जया के किरदार के अलग-अलग तेवरों को वह बखूबी पकड़ती हैं। एम.जी.आर. बने अरविंद स्वामी (‘रोजा’ और ‘बॉम्बे’ वाले) ने उत्कृष्ट काम किया। राज अर्जुन का काम भी बेहद प्रभावी और प्रशंसनीय रहा। अपनी मौजूदगी भर से वह असर छोड़ते हैं। एक अर्से बाद भाग्यश्री और मधु को देखना सुखद लगा। गाने अच्छे हैं और कैमरावर्क उम्दा।
कहीं-कहीं विद्या बालन वाली ‘द डर्टी पिक्चर’ की याद दिलाती यह फिल्म देखी जानी चाहिए। राजनीति की फिसलन भरी सीढ़ियों पर संभल कर चलती, चढ़ती एक नायिका की कहानी को जानना ज़रूरी है। और हां, ‘थलाइवी’ तमिल भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है-नेता, लीडर। फिल्म के शुरू में थिएटर के पर्दे पर हिन्दी भाषा में कास्टिंग लिख कर सुखद अहसास देने वालों को अपनी फिल्म के लिए हिन्दी में कोई उपयुक्त नाम क्यों नहीं मिला?
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-10 September, 2021
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
शानदार रिव्यू। 👏
शुक्रिया…
Sabse pehle to congratulations sir …is page ke badale hue style ke lie….padhne me or ab comment karne me bada maza a raha hai…. 😁Or ye apka review humesha ki tarah ek achhi movie ko bahut achhi banane me ek bar fir safal hua….thank u so much sir 🙏
शुक्रिया मुकुल…💐
वाह! शानदार रिव्यू 💥👏👏
धन्यवाद राकेश जी
Naya look shaandaar hai
धन्यवाद
Bhut sundar
धन्यवाद
बहुत बढ़िया. वेब साईट का नया आवरण बहुत अच्छा है.
शुक्रिया ब्रदर…
शानदार रिव्यू है, कुछ शब्दों में पूरी कहानी को समाहित किया हुआ
शुक्रिया…
Never knew so many hindi speaking people were interested in our Tamil Nadu other than teaching us how to speak in Hindi. It is sad that no Southern heroine was considered for the role of Amma and only a north Indian was thought to be suitable. To say the least, Kangana looked short in comparison to Amma in all aspects. The only thing she increased in the process is her bank balance and her girth.