-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
आंध्रप्रदेश के एक गांव में एक बच्चा पैदा हुआ। जन्म से अंधा। बाप उसे ज़िंदा दफनाने लगा तो मां बिलख पड़ी। बच्चा पढ़ने लगा। टॉप करने लगा। दसवीं के बाद किसी स्कूल ने साईंस में दाखिला नहीं दिया तो शिक्षा व्यवस्था पर मुकदमा कर दिया। जीता और अपने जैसों के लिए नई राह खोली। बारहवीं के बाद देश में इंजीनियरिंग नहीं पढ़ने दी गई तो अमेरिका जाकर इंजीनियर बना। लौट कर कारोबार शुरू किया और देखते ही देखते न सिर्फ सफल उद्यमी बना बल्कि अपनी फैक्ट्री में ढेर सारे दिव्यांगों को नौकरी देकर उन्हें भी आत्मनिर्भर बनाया।
यह कहानी इस फिल्म की नहीं है। यह कहानी है श्रीकांत बोल्ला नाम के उस इंसान की जिसने कभी देश के राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के सामने यह कहा था कि वह इस देश का पहला दृष्टिबाधित राष्ट्रपति बनना चाहता है। उसी श्रीकांत की कहानी पर टी. सीरिज़ से यह बायोपिक ‘श्रीकांत’ बन कर आई है।
बायोपिक फिल्मों के तय खांचे में स्थित यह फिल्म हमें श्रीकांत के जन्म से लेकर उसके रास्ते में आने वाली दिक्कतों, उसके संघर्षों, उसकी कोशिशों, उसकी विजय और फिर उसके भटकने व संभलने की तमाम राहों पर ले जाती है। श्रीकांत, जिसे कदम-कदम पर दुत्कारा जाता है, मगर उसका कहना है कि वह अंधा है, भाग नहीं सकता, लड़ सकता है। यह फिल्म उसकी इसी लड़ाई को दिखाती है। लेकिन इस फिल्म के साथ दिक्कतें भी हैं। फर्स्ट हॉफ में कहानी को खड़ा करते समय जो रोचकता और कसावट थी वह सैकिंड हॉफ में हल्की पड़ जाती है। श्रीकांत की कहानी के ढेरों मकाम इस फिल्म में चलताऊ तौर पर लिए गए हैं। ऐसा लगता है कि इसे लिखने-बनाने वालों को जल्दी पड़ी थी कि कैसे सब कुछ समेटा जाए। हालांकि उन्होंने श्रीकांत को मसीहा या अच्छाई का पुतला भर दिखाने से परहेज़ करते हुए उसकी गलतियों और कमज़ोरियों को भी खुल कर दिखाया है लेकिन लगता है कि सब कुछ फटाफट हो रहा है। लेखकों को कुछ प्रसंग छोटे करने चाहिएं थे, कुछ हटाने और कुछ खींचने भी चाहिएं थे।
निर्देशक तुषार हीरानंदानी का कैरियर बतौर लेखक मसालेदार फिल्मों से भरा रहा है लेकिन बतौर निर्देशक वह अलग तरह का सिनेमा रच रहे हैं। ‘सांड की आंख’ और ‘स्कैम 2003’ के बाद अब ‘श्रीकांत’ का आना बताता है कि बतौर डायरेक्टर वह एक अलग दृष्टि, एक अलग सोच रखते हैं। इस फिल्म में उन्होंने जिस तरह से कुछ प्रभावशाली सीन बनाए हैं, जिस तरह से उन्होंने अपने कलाकारों से काम निकलवाया है, वह सराहनीय है। हालांकि कुछ जगह उनकी सीमाएं भी दिखाई दी हैं।
(रिव्यू-बदलती हवा का रुख बतलाती ‘सांड की आंख’)
राजकुमार राव ने एक दृष्टिबाधित शख्स के भावों और भंगिमाओं को आत्मसात करते हुए बेहद प्रभावशाली अभिनय किया है। यह किरदार उन्हें पुरस्कार दिलवा सकता है। फिल्म के एक दृश्य में श्रीकांत पूछता है-कैसा लगा मेरा परफॉर्मेंस? तो मन कहता है-बहुत ही बढ़िया। उनकी टीचर बनी ज्योतिका का काम बेहद सधा हुआ रहा। यह फिल्म ज्योतिका की नजर से नैरेशन देते हुए बनती और प्रभावी हो सकती थी। शरद केलकर का पूरी तरह से इस्तेमाल ही नहीं हो सका। अलाया एफ के रोल को भी विस्तार व गहराई मिलनी चाहिए थी। कलाम साहब की भूमिका में जमील खान का काम असरदार रहा। गीत-संगीत ने फिल्म को सहारा ही दिया। ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा…’ को सुनना सुकून देता रहा।
श्रीकांत का सफर दिलचस्प तो है ही, प्रेरणादायक भी है जो न सिर्फ एक दर्शक के तौर पर हमें राह दिखाता है बल्कि यह फिल्म वालों को भी बताता है कि इस किस्म की ढेरों कहानियां हमारे इर्दगिर्द छितरी पड़ी हैं, उठा लीजिए उन्हें, बना दीजिए उन पर फिल्में।
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Release Date-10 May, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Ek jabardast prernadayak …Movie…. Good