-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
करीब तीन बरस पहले नेटफ्लिक्स पर ही आई फिल्म ‘हसीन दिलरुबा’ में रानी और रिशु ने शादी के बाद रानी के प्रेमी नील को मार दिया था जिसके बाद रिशु गायब हो गया था। बाद में पुलिस को पता चला था कि रानी उन्हें जो कहानी सुना रही थी वह तो असल में एक जासूसी उपन्यास लेखक दिनेश पंडित के लिखे किसी उपन्यास की नकल भर थी। अब नेटफ्लिक्स पर उसी फिल्म का सीक्वेल ‘फिर आई हसीन दिलरुबा’ आया है जिसमें एक बार फिर रिशु और रानी मिल चुके हैं। लेकिन दुनिया की नज़रों में रानी विधवा है और अभिमन्यु उससे प्यार करता है। पर क्या रिशु उन्हें मिलने देगा? क्या अभिमन्यु रानी को जाने देगा? और नील का पुलिस वाला चाचा जो पुराना केस खोले बैठा है, उसका क्या होगा?
सीक्वेल फिल्मों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह होती है कि अगर किसी ने पिछला भाग नहीं देखा है तो अगला भाग पूरी तरह से उसके पल्ले नहीं पड़ता है। इस फिल्म के साथ भी यही हुआ है और इसे राईटर कनिका ढिल्लों की नाकामी ही कहा जाएगा कि बार-बार पिछले रेफरेंस देने के बावजूद वह यह समझा पाने में नाकाम रही हैं कि असल में पिछले भाग में हुआ क्या था।
जहां तक पिछले भाग यानी ‘हसीन दिलरुबा’ की बात है तो बहुत सारे समीक्षकों ने उसे भी एक कमज़ोर, अतार्किक और लचर फिल्म बताया था। यह अलग बात है कि नेटफ्लिक्स उसे अपनी सुपरहिट फिल्मों में बताता है। अब इस वाली फिल्म यानी ‘फिर आई हसीन दिलरुबा’ के लिए भी नेटफ्लिक्स ने खासा ज़ोर लगाया है। फिल्म के सितारों को मुंबई से दिल्ली ले जाकर ओ.टी.टी. पर आने वाली फिल्म का थिएटर में शो करवाया है, लाखों रुपया उड़ाया है। लेकिन बदले में दर्शकों ने क्या पाया है…?
मर्डर-मिस्ट्री, सस्पैंस, थ्रिलर जैसे फ्लेवर वाली फिल्मों के साथ यही शर्त बंधी होती है कि आप इन फिल्मों में तार्किकता के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते। लेकिन इन फिल्मों के साथ यह कहावत भी गुंथी हुई है कि इनमें आप वह नहीं देखते जो होना चाहिए बल्कि वह देखते हैं जो लेखक आपको दिखाना चाहता है। तो… कनिका ढिल्लों ने इसमें वही दिखाया है जो उन्होंने चाहा है। वैसे भी वह इस फिल्म की सह-निर्मात्री हैं, बड़े नाम वाली लेखिका हैं। ऐसे में अव्वल तो अपने लिखे को वह किसी और से बंचवाती नहीं होंगी और अगर कोई उनकी लिखी स्क्रिप्ट पढ़ता भी होगा तो खुल कर कुछ कह नहीं पाता होगा।ऐसे में जो मन चाहा, लिखा गया और जो मन चाहा, पर्दे पर उतार दिया गया। आगे आप लोग झेलिए।
फिल्म में एक हो चुके मर्डर की तफ्तीश चल रही है, आगे हो सकने वाले मर्डरों की प्लानिंग चल रही है लेकिन न तो तफ्तीश करने वाले और न ही प्लानिंग करने वाले दिमागदार दिखाए गए हैं। सच तो यह है कि फिल्म में जो कुछ हो रहा है, संयोग से हो रहा है और अगर ये संयोग न होते तो फिल्म में कुछ न होता। पुलिस वालों को फिल्म में इस कदर मूड़मगज दिखाया गया है कि उन पर तरस आता है। लेकिन उनकी अकड़ देखिए तो ऐसी, जैसे उनसे बड़ा कोई करमचंद न हो।
(वेब-रिव्यू : पाकिस्तान जाने को राज़ी हुए ‘मुखबिर’ की उम्दा कहानी)
वेब-सीरिज़ ‘मुखबिर’ और फिल्म ‘कौन प्रवीण तांबे’ निर्देशित कर चुके डायरेक्टर जयप्रद देसाई ने अपनी तरफ से सीन बनाने और कलाकारों से बढ़िया काम निकलवाने की भरसक कोशिश की है लेकिन जब हाथ में किसी सस्ते जासूसी उपन्यास सरीखी लड़खड़ाती हुई स्क्रिप्ट हो तो नतीजा भी सस्ता ही निकलना था। तापसी पन्नू में अब शायद कुछ नया नहीं बचा है। उन्हें अब मुख्य भूमिकाओं से हट कर सोचना चाहिए। विक्रांत मैस्सी और सन्नी कौशल की मेहनत दिखी लेकिन उनके किरदारों में ही दम नहीं था। तरस तो बेचारे जिम्मी शेरगिल पर आता है। जूनियर कलाकार जैसा रोल मिला उन्हें और आदित्य श्रीवास्तव को भी। लंगड़ाती पूनम के किरदार में भूमिका दुबे ज़रूर जंची। गीत-संगीत साधारण रहा।
(रिव्यू-मैदान न छोड़ने की सीख देता ‘कौन प्रवीण तांबे?’)
यह फिल्म कुछ देती नहीं है। इसके प्रेमियों का प्रेम आपको महसूस नहीं होता। इसके किरदार सारे के सारे कमीने-टाइप के हैं। इसकी पुलिस निठल्ली किस्म की है जिसे जब चाहे सबूत मिल जाते हैं, जब चाहे वह हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाती है। इसका सस्पैंस जब खुलता है तो लचर लगता है। इसका रोमांच आपको बांध नहीं पाता है। फिर भी आपको किसी सस्ते जासूसी उपन्यास सरीखी यह फिल्म देखनी हो तो मर्ज़ी आपकी। बनाने वाले तो अभी आगे भी सीक्वेल लेकर आएंगे।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-09 August, 2024 on Netflix
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)