-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
नेटफ्लिक्स पर आई ‘महाराज’ वही फिल्म है जिसकी रिलीज़ कुछ धार्मिक संगठनों की इस शिकायत पर टाल दी गई थी कि यह उनकी भावनाओं पर ठेस पहुंचा सकती है। मगर अदालत ने इसे देखा और कहा कि इसमें ऐसा कुछ नहीं है। और वैसे भी यह फिल्म 2013 में आए सौरभ शाह के इसी नाम के उस गुजराती उपन्यास पर आधारित है जिस पर कभी कोई बवाल नहीं हुआ।
1862 में बॉम्बे की अदालत में पेश हुए ‘महाराज मानहानि केस’ के हवाले से यह फिल्म दिखाती है कि उन दिनों वल्लभाचार्य द्वारा स्थापित कृष्ण-भक्ति के पुष्टिमार्ग संप्रदाय में कृष्ण जी की हवेली (मंदिर) के मुख्य पुजारी यानी महाराज को लोग कृष्ण का ही अवतार मान कर उनके आगे बिछ-बिछ जाते थे और उनकी हर प्रकार से ‘सेवा’ करना अपना व अपने परिवार का धर्म समझते थे। इन्हीं ‘सेवाओं’ में एक होती थी ‘चरण सेवा’ जिसमें वह अपने परिवार की बहू-बेटियों को महाराज के पास भेजा करते थे और भक्त लोग उस कमरे के झरोखों से अंदर हो रही ‘सेवा’ को देख कर ‘आनंद’ प्राप्त करते थे। हालांकि कोई ज़ोर-ज़बर्दस्ती नहीं होती थी, परिवार वाले और लड़कियां अपनी मर्ज़ी से इस कृत्य में शामिल होते थे। तब एक विलायत-रिर्टन युवक करसन दास मुलजी ने इस कुप्रथा के खिलाफ पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया जिस पर महाराज यदुनाथ ने उस पर मानहानि का केस कर दिया। मगर अदालत ने महाराज के इस कृत्य को गलत बताते हुए करसन दास को निर्दोष पाया। बाद में यह कुप्रथा बंद हो गई।
धर्म की आड़ में होने वाले पाखंड और कुकृत्यों के विरुद्ध समाज, साहित्य और सिनेमा में अक्सर आवाज़ें उठी हैं। समाज सुधारकों, लेखकों आदि की इन्हीं आवाज़ों के चलते ही कई सारी कुरीतियों के उन्मूलन का रास्ता साफ हुआ। फिर चाहे वह देवदासी प्रथा रही हो, सती प्रथा या फिर चरण सेवा की प्रथा। इस फिल्म का नायक अदालत में कहता भी है कि प्रथा का पुराना होना नहीं, सही होना ज़रूरी है। इस फिल्म को तसल्ली से देखें तो यह भी समझ आता है कि यह किसी धर्म या संप्रदाय के नहीं बल्कि एक कुप्रथा के खिलाफ बात करती है जिसके चलते रहने के पीछे वे भक्त भी दोषी होते हैं जो आंख मूंद कर उसे मानते रहते हैं। लेकिन क्या इतने भर से यह फिल्म ‘ओह माई गॉड’ या ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ जितनी सशक्त हो जाती है?
(रिव्यू-सोच बदलेगी…? ओह माई गॉड…!)
‘महाराज’ बहुत सारे तथ्य सामने लाती है लेकिन यह नहीं बताती कि विलायत से लौटने के बाद करसन दास ईसाई धर्म के प्रति बेहद आसक्त हो चुके थे और उन्होंने ईसाई धर्म के बहुत सारे साहित्य का गुजराती में अनुवाद व प्रकाशन भी किया था जिसके बाद अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें काठियावाड़ का प्रशासक भी नियुक्त किया था। खैर, इससे करसन दास के सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज़ उठाने की मंशा पर शक नहीं किया जा सकता। मगर यह भी सच है कि इस फिल्म की लिखाई कई जगह काफी डगमगाई है। इसे यशराज फिल्म्स ने बनाया है और इसीलिए इस फिल्म में वह वाली बेवजह की भव्यता दिखाई देती है जो यशराज, करण जौहर, संजय लीला भंसाली की फिल्मों का ज़रूरी अंग होती है, भले ही वहां पर उसकी ज़रूरत हो या न हो। कहानी का ‘फिल्मीपना’ और स्क्रिप्ट का असहज होना इस फिल्म को देखते हुए चुभता है। किरदारों का बनावटी चित्रण भी इस फिल्म को कमज़ोर बनाता है। करसन बचपन से ही सवाल पूछने वाला जिज्ञासु प्रवृत्ति का इंसान है लेकिन उसके सवालों के जवाब बचकाने ढंग से देकर फिल्म अपना झुकाव ही प्रकट करती है। संवाद ज़रूर कई जगह प्रभावी हैं।
‘महाराज’ को उन सिद्धार्थ पी. मल्होत्रा ने निर्देशित किया है जो ‘वी आर फैमिली’ और ‘हिचकी’ जैसी बड़े सितारों वाली चमकीली फिल्में बना चुके हैं। जबकि ‘महाराज’ एक पीरियड फिल्म है जिसमें धर्म और समाज-सुधार जैसे संवेदनशील विषयों की ज़मीन है। मुमकिन है सिद्धार्थ की जगह कोई और डायरेक्टर इसे थोड़ा और गहरा, गाढ़ा, पैना और कसा हुआ भी बना पाता क्योंकि महज़ दो घंटे की होने के बावजूद इसे देखते हुए अंगड़ाइयां लेने का जो मन करता है वह इस फिल्म के ढीले होने की चुगली खाता है।
(रिव्यू-कांटों में राह बनाने को ‘सिर्फ एक बंदा काफी है’)
आमिर खान जैसे बड़े स्टार के बेटे जुनैद खान का ऐसी फिल्म से आगमन दुस्साहस ही कहा जाएगा। जुनैद ने हालांकि करसन दास के किरदार को निभाने में मेहनत की है लेकिन उनकी संवाद अदायगी, भावों और भंगिमाओं में अभी और सुधार आना बाकी है। शालिनी पांडेय, शरवरी वाघ व अन्य कलाकार अपने किरदार साधारण ढंग से निभा गए। इन सब पर छाने का काम करते हैं जयदीप अहलावत। महाराज की भूमिका में जयदीप के पर्दे पर आने के बाद नज़रें सिर्फ और सिर्फ उन पर रहती हैं। उनके व बाकी के किरदारों को और अधिक विस्तार व गहराई मिलती तो फिल्म अपने असर को बढ़ा सकती थी। गीत-संगीत साधारण है, कैमरावर्क अच्छा।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-21 June, 2024 on Netflix
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
Umda Review.. aur zaroori film .
Abhi dekhi nahiN hai .. isliye apna koi opinion nahiN hai.
Par aapko padh kar lag rahaa .. Dekhna banta to gai. Film me kami beshi hogi.. Lekin subject kah rahaa .. aao film dekho..
KuritiyoN pe kuthaara-ghaat kare koi .. Badi baat hai. chaahe jis maadhyam se ..
Aur films zyada asardaar maadhyam hai.
Ye to purani pratha hai , jo band ho chuki,
KuritiuoN ki to Lambi fehrist hai samaj me aaj bhi .
Film makers ko uthaana hi chaahiye ye beedaa.
कुप्रथा – औऱ – महाराज…..
फ़िल्म देखी….. अक्सर ऐसी फ़िल्में वक़्त निकालकर ही देखी जाती हैँ…. क्यूंकि कई बार ऐसी फ़िल्मों में लगता है कि एक झपकी ले ली जाय…. उबासु फ़िल्म है… लेकिन वो तो उस फ़िल्म का धाराप्रवाह होता है जो उसको उसके अंत तक ले जाता है…
न्यू एंट्री….. ज़ुनैद खान को अभी तो बहुत कुछ सीखना बाकी है.. .. पहली ही बाल पर छक्का लग जाय तो संभव नहीं…
बाकी रिव्यु एकदम परिपूर्णता औऱ सतीकता लिए हुए है….