-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
‘ककुदा’ (Kakuda) फिल्म का ट्रेलर बताता है-रतोड़ी, एक शापित गांव जहां हर घर में दो दरवज्जे हैं, एक बड़ा और एक छोटा। छोटा वाला दरवज्जा ककुदा के लिए। वो भूत हर मंगलवार सवा सात बजे आवे है। और जिसने उसका दरवज्जा न खोला… 13वें दिन पारी समाप्त। इस गांव में ब्याह कर आई नायिका इसे अंधविश्वास मानती है। उसका कहना है कि आज तक किसी ने कोसिस भी तो न करी। नायिका कोशिश करती है, एक अंग्रेज़ी तांत्रिक… न, न, घोस्ट हंटर को बुलाती है और फिर…!
अब कहानी तो सही ही लग रही है। और कुछ बरस पहले ‘स्त्री’ ने हॉरर के साथ कॉमेडी के तड़के का जो चस्का लगाया था उसी राह पर चलते हुए इस कहानी में भी बात-बेबात पर हा-हा, ही-ही करवाने की कोसिसें की गई हैं। लेकिन हर कोसिस कामयाब हो ही जावे तो फिर क्या कहने।
इस किस्म की फिल्मों में कॉमेडी उपजती है किरदारों के अतरंगीपन से, उन सिचुएशन्स से जिनसे ये गुज़रते हैं, उन संवादों से जो ये लोग बोलते हैं। अब लिखने वालों ने अपने तईं मेहनत तो खूब की है लेकिन उनकी इस मेहनत के पीछे का हल्कापन छुपता नहीं है। कहानी को उसके अंजाम तक पहुंचाने के लिए कुछ भी और कैसा भी गढ़ कर उसके ज़रिए हास्य उपजाने की लेखकों की कोशिशों में कमज़ोरी झलकती है। उस कॉमेडी का क्या फायदा जो आपको हंसाए कम और खीज ज़्यादा पैदा करे! संवाद चलताऊ किस्म के हैं और किरदार टिकाऊ नहीं बन पाए हैं। ऊपर से फिल्म (Kakuda) को मथुरा के आसपास की दिखाने के चक्कर में हर आदमी ब्रज भाषा बोलने की सफल-असफल कोसिस कर रेयो है। इस कोसिस में वह हर शब्द में ओ-ओ लगा रेयो है। इस काम में वह कितना कामयाब हो रेयो है, यह देखने की ज़हमत न तो लेखक लोगन उठा रेयो है और न ही डायरेक्टर साहब को कोई फर्क पड़ रेयो है। भाई लोगों, सीधी-सरल हिन्दी बुलवा लेते।
2019 में ‘द शोले गर्ल’ जैसी शानदार फिल्म दे चुके निर्देशक आदित्य सरपोतदार को हॉरर से कुछ ज़्यादा ही प्यार है। मराठी में ‘ज़ोम्बिवली’ और पिछले दिनों हिन्दी में ‘मुंज्या’ देने के बाद अब इस फिल्म (Kakuda) में भी उन्होंने ककुदा के ज़रिए डराने की भरपूर कोशिश की है। स्पेशल इफैक्ट्स, मेकअप, सैट्स और बैकग्राउंड म्यूज़िक इस काम को आसान भी करते हैं लेकिन दिक्क्त यह है कि यह फिल्म थिएटर की बजाय ओ.टी.टी. प्लेटफॉर्म ज़ी-5 पर आ रही है। बंद थिएटर के अंधेरे में गूंजती आवाज़ों के साथ डराने और अपने घर या मोबाइल पर डर पैदा करने में फर्क होता है। वैसे भी इस फिल्म की कहानी का ट्रैक इस कदर घिसा-पिटा हुआ है कि बजने के नाम पर रेंकने लगता है। सीन बनाने में भी आदित्य चूके हैं। 13 दिन बाद मरने जा रहा इंसान उदास है लेकिन पूरा गांव एन्जॉय कर रहा है, क्यों भई…?
फिल्म का नाम ‘ककुदा’ (Kakuda) क्यों है? क्योंकि फिल्म में भूत का नाम ककुदा है। लेकिन इस भूत का नाम ककुदा क्यों है, यह फिल्म नहीं बता पाती। वैसे भी पूरी फिल्म में ककुदा को ककूदा, ककुडा, ककुड़ा, ककूड़ा, काकूदा, काकूड़ा वगैरह-वगैरह कहा गया है। यहां तक कि रतोड़ी गांव को भी रतौड़ी, रथोड़ी, रतोडी कहा गया है। भाई लोगों, भाषा-वाषा का ध्यान तो रख लेते।
(रिव्यू-‘द शोले गर्ल’ देखनी चाहिए? जी गुरु जी…!)
रितेश देशमुख ज़बर्दस्त ओवरएक्टिंग करते पकड़े गए हैं। सोनाक्षी सिन्हा साधारण अभिनेत्री हैं और साधारण ही रहीं। फिल्म में मास्टर साहब की पढ़ी-लिखी बेटी को भाया भी कौन, साधारण बुद्धि वाला हलवाई…! साक़िब सलीम एकदम बेकार लगे। एकमात्र आसिफ खान ही जंचे लेकिन उनके किरदार का नाम किलविश…!!! सच्ची…!!! राजेंद्र गुप्ता, योगेंद्र टिक्कू व बाकी लोगों के जब किरदार ही ढंग से नहीं लिखे गए तो वे परफॉर्म क्या करते।
ऐसी फिल्मों में तर्क नहीं ढूंढे जाते। लेकिन हॉरर, कॉमेडी, मनोरंजन तो ढूंढा जाता है न? ये सब भी नहीं है इस फिल्म (Kakuda) में। बस, इत्तू-सा मैसेज है कि मुसीबत के समय भागा नहीं जाता, हल तलाशा जाता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-12 July, 2024 on ZEE5
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
मोको तो रिव्यू मजेदार लगो ….कमाल लिखते हैं सर आप 👌
धन्यवाद…
आपका रिव्यु पढ़कर… फ़िल्म देखी…औऱ रिव्यु कि बृज भाषा मन को भाई गई…..
जैसी फ़िल्म…… वैसा ही जबरदस्त रिव्यु…..
थैंक्स
Naa dekhni