-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
कोई इतनी महान फिल्म नहीं है ‘दबंग’ कि उसकी समीक्षा करने की बजाय उस पर अलग से बात की जाए। लेकिन समीक्षा में उस तरह की बातें शायद नहीं हो पातीं जो इस फिल्म में हैं तो सही और साफ-साफ नज़र भी आ रही हैं मगर जिन पर कोई कुछ कहने का साहस नहीं कर रहा है। फिल्मी कारोबार का कायदा है कि यहां जिसका सिक्का चल गया वही खरा है और चलते हुए का गुणगान किया जाता है, उसमें मीन-मेख नहीं निकाले जाते। लेकिन चुप रहने से सच बदल तो नहीं जाता।
माना कि सच यह है कि ‘दबंग’ एक सफल फिल्म है। इसने अपने शुरुआती तीन दिनों में जितना पैसा बटोरा उतना तो अभी तक की सबसे बड़ी हिट कही जा रही आमिर खान की फिल्म ‘3 ईडियट्स’ भी नहीं बटोर पाई थी। सत्तर के दशक की मसालेदार फॉर्मूला फिल्मों की तरह इस फिल्म ने वह मनोरंजन परोसा है जो देखने वालों को दिमाग पर ज़ोर डालने की फुर्सत और ज़हमत नहीं देता। हमारी फिल्में वैसे भी दिमागहीन मनोरंजन परोसने में उस्ताद समझी जाती रही हैं। यहां मनमोहन देसाई और डेविड धवन जैसों का सिनेमा कहीं ज़्यादा बिकाऊ रहा है। लेकिन ‘दबंग’ एक किस्म की चेतावनी भी है। खासकर इस दौर में जब अपना सिनेमा एक नई करवट ले रहा है और नई पीढ़ी के फिल्मकार आकर खम ठोक कर यह कह रहे हैं कि उनके पास हमारे सिनेमा की तस्वीर बदलने का दम और दिमाग, दोनों मौजूद हैं। ऐसे में इस फिल्म का आना उस नई धारा को कमज़ोर करता है और बताता है कि हम लोग शायद किसी खुशफहमी में जी रहे थे और थाली में दिख रही चांद की परछाईं को ही चांद समझे बैठे थे।
पहली हैरानी इस बात पर होती है कि इस फिल्म के निर्देशक वह अभिनव कश्यप हैं जो न्यू ऐज सिनेमा के पुरोधा माने जा रहे अनुराग कश्यप जैसे निर्देशक के सगे भाई हैं और मणिरत्नम के सहायक भी रह चुके हैं। चलिए, माना कि अभिनव न तो अनुराग हो सकते हैं और न ही मणिरत्नम लेकिन कम से कम उन्होंने खुद जो बनाया है उसके प्रति तो कुछ संजीदगी दिखाते। कहने वाले कह रहे हैं कि मनोरंजन की खुराक के मामले में ‘दबंग’ ने सलमान की ही ‘वांटेड’ को कहीं पीछे छोड़ दिया है। काश कि यह सच होता। याद कीजिए ‘वांटेड’ में बाकायदा एक कहानी है जो पहले सीन से चलनी शुरु हो जाती है और अंत तक अपनी रफ्तार नहीं छोड़ती। वहीं ‘दबंग’ में कहानी के नाम पर सिर्फ एक ढांचा है जो बेहद कमज़ार पायों पर खड़ा है। इंटरवल तक भी कहानी वहीं खड़ी दिखती है जहां यह पहले सीन में होती है।
(सोनाक्षी सिन्हा का वह ‘दबंग’ इंटरव्यू)
इस फिल्म के आने से पहले इसके निर्देशक अभिनव कश्यप इसकी विषयवस्तु और पटकथा को लेकर जिस तरह की बातें कर रहे थे, यह फिल्म देख कर लगता है कि वे बातें महज़ छलावा थीं। फिल्म में ऐसे एक नहीं, कई सारे किंतु-परंतु हैं जिन्हें देखकर ज़रा-सा भी दिमाग लगाने वाले दर्शक सवाल उठाते हैं मगर उन्हें कहीं कोई जवाब नहीं मिलता। इस फिल्म की नायिका के चेहरे पर हमेशा खुंदक-सी छाई रहती है जिसकी कोई वजह अभिनव नहीं बताते। उनके लालगंज में मिट्टी की सुराही ढाई सौ रुपए में बिकती है…! नायिका का एक डायलॉग है कि साहब थप्पड़ से डर नहीं लगता, प्यार से लगता है। क्यों? कोई जवाब नहीं। ऐसे बहुतेरे सीन हैं जिनकी नींव कमज़ोर है, पिलपिली है मगर… फिल्म हिट है साहब और हिट फिल्म पर उंगलियां नहीं उठाई जातीं उसके लिए तालियां बजाई जाती हैं।
ऐसा नहीं है कि ‘दबंग’ एकदम बकवास है। होती तो इसे लाखों दर्शकों का प्यार नहीं मिला होता। होती तो लोगों को इसे देख कर मज़ा नहीं आया होता। लेकिन ज़रा-सा गौर कीजिए तो पाएंगे कि यह ठीक उसी तरह का मज़ा है जो अक्सर अपनी चमड़ी पर हो गए दाद को खुजाने में आता है। एक ऐसा आनंद जो क्षणिक है लेकिन जिसका भविष्य दाद के कोढ़ बनने की आशंका से घिरा है। इस फिल्म में मनोरंजन के तत्व हैं और भरपूर हैं लेकिन मनोरंजन की यह खुराक बहुत ही उथली है जिसमें उफान तो है मगर गहराई नहीं। कहने वाले कह सकते हैं कि आप मसाला फिल्म देखते समय दिमाग लगाते ही क्यों हैं? तो क्या यह मान लिया जाए कि जब भी हम ऐसी किसी फिल्म को देखेंगे तो अपने दिमाग को किनारे पर रख देंगे? और क्या यह सचमुच संभव है? और अगर ऐसा करने की परंपरा बन गई तो उन ‘3 ईडियट्स’, ‘रंग दे बसंती’, ‘गजिनी’, ‘तारे ज़मीन पर’, ‘मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस.’ जैसी ढेरों फिल्मों को हम किस नज़रिए से देखेंगे जो भरपूर मनोरंजन परोसती हैं और जिन्हें देखते समय हमें अपने दिमाग को भी सुलाना नहीं पड़ता।
किसी भी फिल्म में कहानी, पटकथा के साथ उसके पात्रों का एक तय चरित्रचित्रण भी होता है लेकिन ‘दबंग’ के पात्र कभी भी कुछ भी हो जाते हैं तो ज़ाहिर है कि इसे बनाने वालों की मेहनत और बुद्धि इसे शानदार बनाने पर ही टिकी थी न कि यादगार। वैसे अगर यह कहा जाए कि ‘दबंग’ को इसके निर्देशक अभिनव कश्यप ने पूरे हॉलीवुड स्टाईल में बनाया है तो कुछ गलत नहीं होगा। हॉलीवुड की मसाला फिल्में भी इसी तरह की होती हैं जिनमें मनोरंजन की खुराक परोसते समय तर्कों पर ध्यान नहीं दिया जाता। वहां की ही फिल्में हैं जिनमें अपने बाप के मरने के अगले सीन में हीरोइन शादी कर सकती है और अपने भाई की मौत को अगले ही पल भूल सकती है। पर क्या हॉलीवुड के स्तर तक पहुंचने के लिए हमें वाकई इस तरह की फिल्मों की ही ज़रूरत है? इस सवाल का जवाब ढूंढना होगा तभी हम यह तय कर पाएंगे कि हमारे सिनेमा का भविष्य और हमारे भविष्य का सिनेमा क्या और कैसा होगा।
(फिल्म ‘दबंग’ पर लिखा मेरा यह समीक्षात्मक आलेख फिल्म मासिक पत्रिका ‘फिल्मी कलियां’ के नवंबर, 2010 अंक में प्रकाशित हुआ था)
Release Date-10 September, 2010 in theaters
(रिव्यू-‘दबंग 3’-न सीक्वेल, न प्रीक्वेल, बस चल-चला-चल)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)