–दीपक दुआ… (This review is featured in IMDb Critics Reviews)
उत्तराखंड का टिहरी शहर। तीन गहरे दोस्त। सुंदर (दिव्येंदु शर्मा), सुशील (शाहिर कपूर) और नॉटी (श्रद्धा कपूर)। जान छिड़कते हैं एक-दूसरे पर। लेकिन जब नॉटी यानी ललिता नौटियाल अपने लिए सुंदर मोहन त्रिपाठी को चुन लेती है तो सुशील कुमार पंत चिढ़ जाता है और इनसे दूर जाने लगता है। पर जब अपनी फैक्ट्री की बिजली का बिल 54 लाख रुपए आने पर सुंदर खुदकुशी कर लेता है तो वकील सुशील अपने मरहूम दोस्त को न्याय दिलाने के लिए बिजली कंपनी पर केस ठोक देता है।
यानी इस फिल्म ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ में एक साथ दो कहानियां चल रही हैं। एक तरफ तो सुंदर-सुशील-नॉटी की दोस्ती और प्रेम की कहानी है और दूसरी तरफ बिजली कंपनी की मनमानी के खिलाफ इनकी जंग की। लेकिन इनके अलावा भी इस फिल्म में बहुत सारी कहानियां हैं। मसलन सुशील के पिता इस उम्र में भी शादी करना चाहते हैं। वह एक होटल चलाते हैं जिसे वो धर्मशाला कहते हैं और जिसमें विलायती सुंदरियां आकर रुकती हैं। सुशील वकालत कम और ब्लैकमेलिंग ज्यादा करता है। बीच में वो मसूरी जाकर वकालत का एक कैंप भी लगा लेता है। इधर सुंदर के पिता खाना अच्छा बना लेते हैं और सुशील के पिता की धर्मशाला में उसे सप्लाई करते हैं। उसके घर में एक लड़की भी है जो उसे और सुशील को भैया बोलती है लेकिन सुशील से सटना-पटना चाहती है। नॉटी का बाजार में बुटीक है और वो मशहूर ड्रेस डिजाइनर बनना चाहती है। उसकी मम्मी पर सुशील के पिता लाइन मारते हैं। उसकी दादी हमेशा मोबाइल पर लगी रहती है। बिजली कंपनी वाले बड़े लापरवाह किस्म के हैं लेकिन भ्रष्ट कत्तई नहीं हैं। और हां, ये सारी कहानियां सुनाने के लिए विकास और कल्याण नाम के दो नैरेटर भी हैं जो किसी बस में बैठ कर कहीं से कहीं को जा रहे हैं। फिल्मी व्याकरण में इन छोटी-छोटी कहानियों को ‘सब-प्लाट’ कहा जाता है। ये हर फिल्म में ज़रूरी होते हैं ताकि मूल प्लाट अगर नीरस हों तो ये रोचकता जगा सकें। लेकिन इस फिल्म में ये सब बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं लगते और इनकी गिनती इतनी ज़्यादा है कि बहुत जल्दी इनसे कोफ्त होने लगती है।
दरअसल इस फिल्म की यह गैरज़रूरी तौर पर लंबी और फैली हुई स्क्रिप्ट ही इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। तीनों दोस्तों के रिश्ते स्थापित करने में फिल्म इतना लंबा वक्त ले लेती है कि उकताहट होने लगती है। फिल्म के बाद वाला सारा हिस्सा तो ज़बर्दस्ती का ड्रामा लिए हुए है। सुशील बिजली कंपनी से परेशान लाखों लोगों की शिकायतें ले रहा है, लेकिन उन शिकायतों का उसने क्या किया? उसके कहने पर देश भर के लाखों लोग बिजली कंपनियों को फ्यूज़ बल्ब भेजते हैं, लेकिन उससे क्या हुआ? मीडिया में इस केस को लेकर सरगर्मी है लेकिन दोनों पक्ष मीडिया का इस्तेमाल करने की बजाय उससे बच रहे हैं। क्यों? और शुरू में मस्तमौला रहने के बाद सुशील अपने दोस्त की मौत के बाद संजीदा होता है लेकिन अदालत में जाते ही जोकरनुमा हरकतें करने लगता है। अदालत वाला तो खैर, सारा हिस्सा ही किसी सर्कस कंपनी में फिल्माया हुआ लगता है। पता नहीं हमारे फिल्म वाले कायदे की कोर्ट-कचहरी और सलीके की अदालती कार्यवाही दिखाना कब सीखेंगे जबकि ‘जॉली एल.एल.बी.’ की दोनों फिल्में उन्हें ये दिखा चुकी है। फिल्म में बेमतलब के सीन इतने ज़्यादा हैं कि लगता है कि फिल्म के डायरेक्टर श्री नारायण सिंह ने फिल्म के संपादक श्री नारायण सिंह के हाथ से कैंची ही छीन ली हो। 175 मिनट तक कुर्सी से बंधे रहना एक वक्त के बाद सज़ा जैसा लगने लगता है।
फिल्म में टिहरी दिखाया गया है जो गढ़वाल में है लेकिन एक सीन में कहा गया है कि यहां कुमाउंनी बोली जाती है। और स्थानीय बोली के नाम पर हर संवाद की हर लाइन में इतना ‘बल’ और ‘ठैरा’ घुसेड़ा गया है कि ये शब्द कानों को चुभने लगते हैं। पूरी फिल्म में अच्छी-खासी जुबान बोलता सुशील नैनीताल की हाईकोर्ट में आकर अचानक से छिछोरा हो जाता है और बिहारी टोन में बोलने लगता है, क्यों? पूरी फिल्म की कहानी दो सूत्रधारों से बयान करवाने के पीछे का मकसद क्या है, यह भी समझ के बाहर है। और हां, हिन्दी में इस फिल्म के नाम में ‘चालू’ की बजाय ‘चालु’ लिखा जाना भी माफ करने लायक नहीं है।
शाहिद कपूर सामान्य रहे हैं। डायरेक्टर ने उनसे जो करवाया होगा, उन्होंने कर लिया। अपनी तरफ से वह स्क्रिप्ट से कहीं ऊपर उठ कर कुछ अनोखा करते नजर नहीं आते। यही हाल श्रद्धा कपूर का भी रहा और वकील बनीं यामी गौतम का भी। हां, दिव्येंदु शर्मा ज़रूर कई जगह प्रभावित करते हैं। उनके पिता के किरदार में अतुल श्रीवास्तव और शाहिद के साथी उप्रेती की भूमिका में मुकेश भट्ट ही सबसे ज़्यादा प्रभावी रहे। बाकी कलाकारों में सुधीर पांडेय, फरीदा जलाल, सुप्रिया पिलगांवकर, सुष्मिता मुखर्जी, समीर सोनी, शारिब हाशमी को कायदे के किरदार ही नहीं मिले तो वे बेचारे भी क्या कर लेते। गीत-संगीत साधारण है। एक-दो गाने ही जंचते हैं।
हालांकि श्री नारायण सिंह अपनी पिछली फिल्म ‘टॉयलेट-एक प्रेमकथा’ में मनोरंजन में लपेट कर उम्दा मैसेज दे चुके हैं। इस बार वह उचित कीमत पर हर समय बिजली पाने के आम जनता के हक और बिजली कंपनियों की मनमानियों की बात कर रहे हैं और वह भी एक ऐसी जगह के लोगों के ज़रिए जिनके बारे में महानगरों के या देश के दूसरे हिस्सों के लोग सोचना भी नहीं चाहते। ऐसे ढेरों मुद्दे और ऐसी ढेरों जगहें हमारे देश में हैं जिनके बारे में फिल्म बनाना तो दूर कोई संजीदा होकर बात भी नहीं करना चाहता। इस किस्म की कहानी कहने के लिए श्री नारायण सिंह तारीफ के हकदार हो सकते हैं लेकिन जिस तरह से उन्होंने यह कहानी कही है, वो उनकी बनी-बनाई साख को कम करती है। उत्तराखंड से पलायन, वहां की बेरोज़गारी, वहां सुविधाओं की कमी आदि पर फिल्म कोई बात ही नहीं करती। फिल्म के अंत में सुशील अदालत में कहता है-फ्यूज बल्ब से क्रांति नहीं लाई जा सकती। यह फिल्म भी ठीक ऐसी ही है-फ्यूज, जो कोई क्रांति नहीं ला सकती। सच तो यह है कि यह फिल्म अपने नाम के मुताबिक है जिसमें मैसेज गुल है और कॉमेडी चालू। चालू बोले तो, चालू क्वालिटी की, एकदम पैदल।
अपनी रेटिंग–दो स्टार
(यह रिव्यू 22 सितंबर, 2018 के हिन्दी दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हो चुका है।)
Release Date-21 September, 2018
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिज़ाज से घुमक्कड़। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)