-दीपक दुआ… (This Review is featured in IMDb Critics Reviews)
बनारस, वाराणसी, काशी… कुछ अलग ही मिज़ाज हैं इस शहर के। लोग इस शहर में अलग-अलग मकसद से आते हैं। कोई घूमने तो कोई मरने भी। यहां उत्तरवाहिनी गंगा के घाटों में से एक है मणिकर्णिका घाट जहां के श्मशान की अग्नि अनवरत जल रही है-सदियों से। यह महाश्मशान ही इस शहर के हजारों लोगों को रोज़गार देने में सक्षम है। लेकिन यह फिल्म कुछ और ही दिखाती है।
बनारसी रंग-ढंग को हमारी फिल्में अलग-अलग नज़रों से देखती और दिखाती आई हैं। ‘रांझणा’, ‘मसान’ और ‘मुक्ति भवन’ जैसी तीन जुदा फ्लेवर वाली फिल्में एकदम से याद आती हैं। लेकिन ‘बारह बाइ बारह’ इन तीनों से अलग है। कुछ साल पहले के समय में स्थित इस कहानी के केंद्र में एक ‘डैथ फोटोग्राफर’ है जो मणिकर्णिका घाट पर आने वाले शवों की तस्वीर दिवंगत के परिजनों के कहने पर खींचता है। लेकिन अब ज़्यादातर लोग मोबाइल से खुद ही फोटो लेने लगे हैं तो उसका धंधा मंदा होता जा रहा है। उधर काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास निर्माण कार्यों के चलते बड़े स्तर पर तोड़फोड़ की जा रही है, इससे भी कुछ लोग खफा हैं।
दरअसल यह पूरी फिल्म ही खफा लोगों के बारे में है। फोटोग्राफर अपने धंधे को लेकर खफा है, अपने बेटे को मणिकर्णिका ले जाना तक नहीं चाहता। बीवी के समझाने के बावजूद वह डैथ फोटोग्राफी के अलावा कुछ और नहीं करना चाहता। उधर उसका दोस्त अलग ही खफा है जिसे दिक्कत है कि निर्माण कार्यों के चलते उसे उसका मकान छोड़ना होगा (गोया कि उसके बदले उसे कुछ मिलेगा ही नहीं)। असल में यह फिल्म बनाई ही खफा नज़रिए से गई है। उन लोगों की दृष्टि से जिन्हें हर परिवर्तन के पीछे विस्थापन्न तो दिखाई देता है, विकास नहीं।
बनारस में ‘डैथ फोटोग्राफी’ की परंपरा रही है जिसमें परिजन दिवंगत के साथ तस्वीर खिंचवाया करते थे। लेकिन इस फिल्म का फोटोग्राफर सिर्फ मृतकों की फोटो खींच रहा है। वह अपनी आजीविका को बढ़ाने के लिए हाथ-पैर नहीं मारना चाहता। दिल्ली से आई उसकी बहन जब ‘दिल्ली जैसे’ शहर का गुणगान करती है तो हम दिल्ली वालों का मन उसकी बुद्धि पर तरस खाने लगता है। फिल्म अंत में यही स्थापित करती है कि बनारस अपने लोगों का ख्याल नहीं रखता और दिल्ली स्वर्ग है। निर्देशक को एक बार दिल्ली की बस्तियों में भी कैमरा लेकर झांकना चाहिए।
चलिए, जो कहानी ली सो ली, लेकिन निर्देशक गौरव मदान ने उसे बनाया किस तरीके से…! दशकों पहले इस किस्म की धीमी गति और मौन-शैली वाली फिल्में बनती थीं जिन्हें कुछ फिल्म समारोहों में बैठे दर्शक ‘कला’ के नाम पर सहन कर लिया करते थे। इस फिल्म को भी ऐसे ही बनाया गया है, पूरी तसल्ली के साथ। इसीलिए अधिकांश सीन इतने लंबे और पकाऊ हैं कि झेलने भारी पड़ जाते हैं।
ज्ञानेंद्र त्रिपाठी, भूमिका दुबे, आकाश सिन्हा, गीतिका विद्या, हरीश खन्ना का काम बुरा नहीं है। बल्कि यह कहना ज़्यादा सही होगा कि इस फिल्म को इन कलाकारों के लिए ही देखा जाना चाहिए। लेकिन यह भी सच है कि इनमें से किसी के भी किरदार को विकसित करने की कोई खास कोशिश लेखन के स्तर पर दिखाई नहीं देती। लोकेशन और कैमरागिरी बनारसी ढब को नकारात्मकता के भाव के साथ दिखाती है। फिल्म का नाम भी अंत तक अस्पष्ट रहता है।
ऐसी ‘बुद्धिजीवी’ किस्म की फिल्में असल में उन फिल्म फेस्टिवल्स के लिए बनती हैं जहां ये बुद्धिजीवी दर्शकों की तालियां पा सकें। यह भी सिनेमा की ही एक तस्वीर है, अब जैसी भी है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि यह कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस पोस्ट के नीचे कमेंट कर के इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
Release Date-24 May, 2024 in theaters
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
End me apne bilkul shi kah h
Aise films sirf film festival ke liye hi bnti h
Jah pr talia batori ja ske
OTT time me aise filmo ka large screen pr ana hi bdi bat h
Review Jabardast…… Film dekhi aur dekhne mei achchi he lagi…. Location Jabardast…..Kahani bhi achi hai… Swarg aur Narak jaie shehar india mei bhare pade hai….