-दीपक दुआ…
सूरज ढलने के बाद किसी किले में बैठ कर लाइट एंड साउंड शो के जरिए वहां के इतिहास से रूबरू होना मुझे हमेशा से भाता रहा है। आगरा के किले में रोज़ाना शाम होने वाले लाइट एंड साउंड शो के बारे में काफी सुना था। कई बार आगरा जाना हुआ लेकिन इस शो को देखने का वक्त नहीं निकल पाया। इस बार वहां गए तो पहले ही दिन सूरज ढलने से पहले हम लोग वहां पहुंच गए। सोचा, कुछ खा-पीकर अंदर चलेंगे। लेकिन किले के बाहर सिवाय एक गंदे-से ढाबे, दो-एक आइस्क्रीम, कोल्ड-ड्रिंक के ठेलों और एक गोलगप्पे वाले के, और कुछ भी नहीं था। पहले यहां कई ढाबे हुआ करते थे लेकिन अब प्रशासन ने उन्हें हटा दिया है। अब इस जगह पर यू.पी. टूरिज़्म या आगरा प्रशासन कोई कैफेटेरिया, रेस्टोरेंट वगैरह भी तो बना सकता है। खैर…!
वहीं हमने एक कतार से खड़ी हरे रंग की कई साइकिलें देखीं। पता चला कि ये साइकिलें पर्यटकों को किराए पर दी जाती हैं लेकिन सिवाय इक्का-दुक्का विदेशी सैलानियों के इन्हें और कोई नहीं लेता है। सुन कर कोई अचरज नहीं हुआ।
यह लाइट एंड साउंड शो सूरज ढलने के आधा घंटे बाद पहले हिन्दी में और फिर अंग्रेज़ी में होता है। अलग-अलग मौसम में समय थोड़ा-बहुत आगे-पीछे होता रहता है। शो के लिए भारतीय दर्शकों से 70 रुपए, भारतीय छात्रों से 40 रुपए और विदेशी सैलानियों से 200 रुपए लिए जाते हैं। अंदर जाने से पहले बैग चैक होने ही थे। बैग में चिप्स, बिस्किट के इक्का-दुक्का पैकेट और पानी की बोतल पर सिक्योरिटी वाले अड़ गए। चिरौरी की, तब मानें। यानी, हम न तो अंदर-बाहर कुछ खाने-पीने को उपलब्ध कराएंगे, न आपको ले जाने देंगे। भई वाह…!
किले के भीतर पहुंचे तो एक बाग में लाल-पत्थर से बनी पक्की सीढ़ियों पर जाकर बैठ गए। अंधेरा होने के बाद यहीं पर शो दिखाया-सुनाया जाता है। लेकिन ये सीढ़ियां इतनी कम ऊंचाई की हैं कि इन पर आप सहज होकर नहीं बैठ सकते। उस शाम वहां दक्षिण भारत से लड़कियों का एक ग्रुप आया हुआ था जिनमें से कुछ लड़कियां गाने गा रही थीं। हमने उनका एक छोटा-सा वीडियो बनाया जिसे आप नीचे दिए लिंक पर देख सकते हैं।
(आगरा के किले में गाना गाता दक्षिण भारतीय लड़कियों का ग्रुप)
थोड़ी ही देर में सूरज की लालिमा पूरी तरह से गायब हो गई और अंधेरे के स्याह रंगों ने आसमान को अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया। शो शुरू हो गया। दिग्गज अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की असरदार आवाज़ में आगरे के इतिहास से रूबरू करवाता शो, कि कैसे यह किला कभी बादलगढ़ कहलाता था, कैसे मुगलों के आने के बाद इसकी अहमियत बढ़ी। अकबर, शाहजहां, औरंगज़ेब… वह पूरा इतिहास जिसे किताबों में पढ़ा था, आज पूरे नाटकीय अंदाज़ में सुनाई दे रहा था।
लेकिन कुछ ही मिनट बाद लगने लगा कि यह शो वैसा नहीं है, जैसे दूसरे लाइट एंड साउंड शो होते हैं। ग्वालियर के किले का शो मैंने देखा है। दिल्ली के लाल किले का बोरिंग किस्म का शो और दिल्ली के ही पुराने किले का उम्दा शो भी। लेकिन ऐसा अहसास पहले कभी नहीं हुआ। दरअसल आगरा किले के इस शो की सबसे बड़ी कमी यह है कि यहां लाइट्स का काफी कम इस्तेमाल किया गया है जबकि किसी भी लाइट एंड साउंड शो की पहली खासियत उसकी लाइट्स होती हैं जो जगह-जगह और बार-बार जल-बुझ कर उस साउंड के असर को बढ़ाती हैं जो इतिहास के पन्नों को हमारे सामने पलट रहा होता है। अंधेरे में बैठ कर इक्का-दुक्का लाइट्स के साथ चल रहा यह शो जल्द ही बहुत सारे लोगों को बोर करने लगा और वे उठ-उठ कर जाने लगे। बैठने की असहज व्यवस्था भी ज़रूर एक बड़ी वजह रही होगी। किसी तरह से यह शो खत्म हुआ और हम भी पानी फिर चुकी अपनी उम्मीदों का पिटारा उठा कर वहां से चल पड़े। ज़ाहिर है, फिर कभी इस शो को न देखने की कसम खाते हुए।
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय। ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)