मुंबई शहर। गणपति उत्सव के लिए मूर्तियां सज रही हैं। दूसरी तरफ पुलिस कांस्टेबल
गणपत भोंसले रिटायर हो रहा है। वह अकेला है, नितांत अकेला। जिस सस्ती-सी, पुरानी चाल में वह रहता
है वहां बसे मराठियों को लगता है कि मुंबई सिर्फ उनकी है और यू.पी.-बिहार से आए ये ‘भैये लोग’ जबरन यहां घुसे चले आ रहे हैं।
टैक्सी-ड्राईवर विलास अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए भोंसले भाऊ को ‘अपनी तरफ’ खींचना चाहता है। उधर उत्तर भारतीय
संघ वाले भी डटे हुए हैं। लेकिन भोंसले पर अपने आसपास की हरकतों का कोई खास असर नहीं
होता। मगर एक दिन कुछ ऐसा होता है कि वह कदम उठाने को मजबूर हो जाता है।
देवाशीष मखीजा की यह फिल्म उस मिज़ाज की है जिसे हम एक्सपेरिमेंटल सिनेमा या आर्ट
सिनेमा कहते हैं। आम दिन होते तो यह शायद कायदे से रिलीज़ भी न हो पाती। अब यह सोनी
लिव पर आई है। फिल्म की रफ्तार बहुत धीमी है। इतनी ज़्यादा कि किसी आम दर्शक को जम कर
बोरियत महसूस हो सकती है। लेकिन इसे जान-बूझ कर ऐसा बनाया गया है। निर्देशक का मकसद
अपनी कहानी के ज़रिए सनसनी पैदा करना लगता भी नहीं है और इसीलिए इसकी यह सुस्त रफ्तार
ही इसका माहौल रचती है। फिल्म मेटाफोरिक तरीके से बहुत कुछ कह जाती है। शुरुआत में
गणपति को अलंकृत किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ गणपत भोंसले अपने पुलिस के अलंकरण उतार
कर दे रहा है। 10 दिन बाद गणपति का विसर्जन
हो रहा है और भोसले भी खुद को विसर्जित कर रहा है।
मुंबई और लगभग हर बड़े शहर में बाहर से आने वाले प्रवासियों को ‘गैर’ और ‘घुसपैठिया’ मानने की प्रवृति रही है।
बहुतेरे लोगों ने इस मुद्दे पर अपनी दुकानें चलाई हैं, चला रहे हैं। देवाशीष चाहते
तो इस विषय पर और ज़्यादा हार्ड-हिटिंग हो सकते थे। कमेंट भी कर सकते थे। लेकिन उन्होंने
कहानी को अपनी रौ में खुद बहने दिया और यही कारण है कि कलात्मक पैमाने पर उम्दा कही
जा सकने वाली यह फिल्म एक बहुत ही सीमित दर्शक वर्ग को ही पसंद आने का माद्दा रखती
है।
मनोज वाजपेयी का अभिनय अद्भुत रहा है। भोंसले के एकाकीपन को उन्होंने अपनी चुप्पी
से जीवंत किया है। संताष जुवेकर, इप्शिता चक्रवर्ती सिंह, विराट वैभव, अभिषेक बनर्जी जैसे सभी कलाकारों का अभिनय उम्दा है।
कम रोशनी का इस्तेमाल फिल्म को यथार्थ लुक देता है और कैमरे के साथ-साथ उम्दा बैकग्राउंड
म्यूज़िक इसे गाढ़ा बनाता है।
(रेटिंग की ज़रूरत ही क्या है? रिव्यू पढ़िए और फैसला कीजिए कि फिल्म कितनी अच्छी या खराब है। और हां, इस रिव्यू पर अपने विचार ज़रूर बताएं।)
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म-पत्रकारिता में सक्रिय। मिजाज़ से घुमक्कड़। अपने ब्लॉग ‘सिनेयात्रा डॉट कॉम’ (www.cineyatra.com) के अलावा विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
जरूर देखेंगे 😍
ReplyDelete