-दीपक दुआ...

80 के दशक के शुरू में उत्तर प्रदेश के कई शहरों में इन्कम टैक्स अफसरों ने कई चर्चित रेड डाली थीं। उन्हीं को आधार बना कर बुनी गई इस कहानी की पहली और सबसे बड़ी खासियत यही है कि पहले ही सीन से यह आपको अपने आगोश में ले लेती है और हल्की-फुल्की डगमगाहट के बावजूद आपका साथ नहीं छोड़ती। एक बाहुबली सांसद के यहां पड़े इन्कम टैक्स के छापे की इस कहानी में जो तनाव जरूरी होना चाहिए, वह पहले ही सीन से महसूस होने लगता है और लगातार आप उसे अपने भीतर पाते हैं कि अब आगे क्या होगा, कैसे होगा। कहीं-कहीं सिनेमाई छूट ली गई है लेकिन यह फिल्म ज्यादा फिल्मी हुए बिना आपको बांधे रखती है।
अपनी ईमानदारी के चलते बार-बार ट्रांस्फर होने वाले सरकारी कर्मचारी की कहानियां हम लोग ‘सत्यकाम’ के जमाने से देखते आए हैं। खुद अजय देवगन हमें इस फिल्म से अपनी ही ‘गंगाजल’, ‘आक्रोश’ और ‘सिंघम’ की याद दिलाते हैं। लेकिन इन तीनों फिल्मों में वह पुलिस की वर्दी में थे जबकि ‘रेड’ समर्पित ही उन ईमानदार और साहसी अफसरों को की गई है जो बिना वर्दी के इस देश के विभिन्न महकमों में अपने फर्ज को अंजाम दे रहे हैं। इस फिल्म के नायक का साहस अगर हमारी हिम्मत बढ़ाता है तो वहीं सांसद के घर से निकला करोड़ों का काला धन हमें संतुष्टि देता है। वही संतुष्टि जो हमें पर्दे पर हीरो के हाथों पिटते विलेन को देख कर मिलती है।
‘आमिर’ और ‘नो वन किल्ड जेसिका’ जैसी अच्छी फिल्मों के बाद ‘घनचक्कर’ जैसी एक बेहद खराब फिल्म देने के पौने पांच साल बाद निर्देशक राजकुमार गुप्ता ने इस फिल्म से जो सधी हुई वापसी की है, उससे वह उम्मीदें जगाते हैं। फिल्म के संवादों के लिए रितेश शाह तारीफ के हकदार हैं। ‘इंडिया के ऑफिसर्स का नहीं, उनकी बीवियों का बहादुर होना जरूरी है’ जैसा संवाद और मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ का जिक्र बताता है कि उनकी कलम में अभी काफी स्याही बची है। फिल्म के किरदारों के अनुरूप कलाकारों के चयन के लिए अभिषेक बैनर्जी और अनमोल आहूजा की भी तारीफ जरूरी है।
यह फिल्म भ्रष्ट सिस्टम में ईमानदारी से काम करने वालों के प्रति निराशावादी नजरिया दिखाने की बजाय उम्मीदें बनाए रखने का काम करती हैं। इस किस्म की फिल्में बताती हैं कि सब कुछ अभी उतना स्याह नहीं हुआ है जितना ऊपर से दिख रहा है और ईमानदारी का अंजाम हर बार पराजय नहीं होता। बतौर सिनेमा भी इस तरह की फिल्मों का आना जरूरी है क्योंकि ये मसालों में लिपटे पलायनवादी सिनेमा से परे हमें ऐसी कहानियां परोसती हैं जो हमें खुद से मिलवाती हैं, बताती हैं कि कोशिश की जाए तो इस तरह से भी जिया जा सकता है।
अपनी रेटिंग-साढ़े तीन स्टार
Film dekhne ki ichha jaag uthi hai
ReplyDeleteइच्छा को साकार कीजिए... शुक्रिया...
DeleteEver time मस्त review
ReplyDeleteBest Best Best
शुक्रिया... शुक्रिया... शुक्रिया...
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ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteवाकई शानदार फिल्म.... अजय पाजी ने एक बार और अपने आप को एकटिंग का बादशाह सिद्ध कर दिया.... बस थोड़ा रोमांस फिल्म को ढीला करता हैं।।
ReplyDeleteबिल्कुल सही... शुक्रिया...
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