-दीपक दुआ...
बिन बुलाया मेहमान, अतिथि या गैस्ट... अगर चिपक जाए तो सुकून चूस लेता है। इस विषय पर व्यंग्यकार शरद जोशी की लिखी कहानी ‘तुम कब जाओगे अतिथि’ पर बनी अश्विनी धीर की फिल्म ‘अतिथि तुम कब जाओगे’ न सिर्फ अच्छी बनी थी बल्कि अच्छी चली भी थी। पर क्या यह जरूरी है कि हर अच्छी कहानी को फिर से उबाल-पका कर बनाने पर वह दोबारा भी अच्छी ही बने? मंशा अगर सिर्फ पुराने माल को भुना कर लोगों को बेवकूफ बनाने और उनकी जेबों से पैसे खींचने की हो तो चाह कर भी दोबारा अच्छी चीज नहीं बन सकती, यह तय है। भले ही उसे बनाने वाला वही पुराना डायरेक्टर अश्विनी धीर ही क्यों न हो।

इस कहानी में नया कुछ नहीं है, सिवाय इसके कि इस बार यह बिन बुलाया मेहमान लंदन में अपने एक दूर के भतीजे के घर में आ घुसा है और जिसने उसे, उसकी बीवी, पड़ोसियों और ऑफिस वालों को तंग कर रखा है। हालांकि इसके यहां आने का मकसद कुछ और है।
बड़ी ही घटिया किस्म की कहानी पर एकदम बेवकूफाना किस्म की पटकथा लिखी गई है। चाचा-चाची आए तो किसी और काम से हैं और वह काम काफी संजीदा, समझदारी भरा और भावुक है लेकिन ये कभी तो बचकानी हरकतें कर रहे हैं, कभी दीवानी तो कभी मनमानी। संवाद दो-एक जगह ही अच्छे हैं। हां, आखीर का इमोशनल ट्रैक अच्छा लगता है लेकिन तब तक थिएटर में बैठा दर्शक अगर बोर होकर खुदकुशी कर चुका हो, तो भला क्या फायदा?
परेश रावल की काॅमेडी के चाहने वाले इस बार उन्हें देख कर उनसे नफरत करनी शुरू कर सकते हैं। कार्तिक आर्यन और कृति खरबंदा ठीक-ठाक से लगे। तन्वी आजमी साधारण रहीं और संजय मिश्रा ने मजमा लूटा। गीत-संगीत बेकार है। बेकार तो पूरी फिल्म ही है जिससे दूर रहने की चेतावनी दी जाती है। आगे आपकी मर्जी।
अपनी रेटिंग-डेढ़ स्टार
(दीपक दुआ फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं। 1993 से फिल्म–पत्रकारिता में सक्रिय।
मिजाज से घुमक्कड़। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज़ पोर्टल आदि के लिए नियमित
लिखने वाले दीपक रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं।)
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