-दीपक दुआ...
ओ हो मंटो की कहानियों पर फिल्म...! चलो-चलो सब लोग चलते हैं। देखते हुए खामोश रहना और हां, बाहर निकलने के बाद तारीफ जरूर करना। भई, आखिर मंटो जैसे लेखक की कहानियों पर बनी फिल्म है और खुद को बुद्धिजीवी भी तो दिखाना है न।
बतौर निर्देशक अब तक की अपनी तीनों फिल्मों-‘इम्पेशेंट विवेक’, ‘देख रे देख’ और ‘आइडेंटिटी कार्ड’ से राहत काजमी बता चुके हैं कि फिल्म बनाने का उनका इरादा भले ही हर बार नेक होता हो लेकिन एक कसी हुई और दिलचस्प पटकथा रच पाने के मामले में वह काफी कमजोर हैं। इस फिल्म में उन्होंने सआदत हसन मंटो जैसे कालजयी निर्देशक की चार कहानियों-‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’, ‘एसाइनमैंट’ और ‘आखिरी सैल्यूट’ को एक साथ लेकर जो स्क्रिप्ट तैयार की है वह एकदम पैदल, लचर और उबाऊ है। भारत-पाक बंटवारे की पृष्ठभूमि पर लिखी गईं मंटो की ये कहानियां अपने-आप में इतनी ज्यादा सशक्त हैं कि इन्हें ज्यों का त्यों भी दिखा दिया जाता तो ये ज्यादा असर करती। लेकिन अपने ओढ़े हुए बुद्धिजीवीपने के चलते अक्सर फिल्म वाले इन कहानियों से ऐसी छेड़छाड़ कर बैठते हैं कि इनका असर कम हो जाता है। ऐसे में रघुवीर यादव या वीरेंद्र सक्सेना की एक्टिंग भी फिर किसी काम की नहीं रह जाती। हल्की प्रोडक्शन वैल्यू के चलते सब कुछ काफी बनावटी-सा लगता है, सो अलग।
इन कहानियों को एक-एक कर दिखाने की बजाय जिस तरह से राहत ने इन्हें एक-दूसरे में गुत्थमगुत्था किया है उससे तो ये लगभग बेजान ही हो गई हैं। ठीक मंटो की ही कहानी ‘ठंडा गोश्त’ की उस लाश की तरह जिसके साथ ईश्वर सिंह पत्ते फेंट रहा था।
अपनी रेटिंग-एक स्टार
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